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अर्थ-उग्र, दीप्त एवं तप में लीन तेजस्वी भाव होने पर मन का उत्तरायण माना जाता है जब निद्रावस्था. या जड़ता में मन की शांत स्थिति हो तो उसे मन का दक्षिणायन कहते हैं।
दिनं प्रमाणं कथितं मानसं ह्युत्तरायणम् । देव एव सतां चेतो रात्रिस्तद्दक्षिणायनम् ॥ ६॥
अन्वय-मानसं उत्तरायणं दिनं प्रमाणं हि कथितम् देव एव सतां चेतः रात्रि तद् दक्षिणायनम् ॥ ६॥
अर्थ-दिन पर्यन्त मन का उत्तरायण माना जाता है। इसमें सज्जनों का चित्त देव रूपी ही होता है। रात्रि मन का दक्षिणायन है।
साहंकारे च सोत्कर्षे स्वस्य वृत्तौ वसन्तकः । क्रुद्धे सतृष्णे लोकानां तापने ग्रीष्मवानृतुः ॥७॥
अन्वय-स्वस्य वृत्तौ साहंकारे सौत्कर्षे च वसन्तकः क्रुद्ध सतृष्णे लोकानां तापने ग्रीष्मवान् ऋतुः ॥७॥ . अर्थ-जब मन अहंकारावस्था, उत्कर्षावस्था में होता है तो वह अपनी वृत्ति में वसन्त ऋतु माना जाता है। क्रोधावस्था और तृष्णावस्था एवं लोक पीडाकारिता में जब मन लगता है तब गीष्म ऋतु मानी जाती है।
दाने रसे प्रकाशादौ वर्षा मनसि निश्चिते ।। शौचे देशान्तरभ्रान्तौ शरदेव धनार्जने ॥ ८॥
अन्वय-मनसि दाने रसे प्रकाशादौ निश्चिते वर्षा। शौचे, देशान्तरभ्रान्तौ धनार्जने शरद् एव ॥८॥
अर्थ-दान, आनन्द, प्रसन्नता आदि का भाव जब मन में उत्पन्न होता है तो मन में वर्षा ऋतु का निश्चय किया जाता है। पवित्रता, देशाटन एवं धन प्राप्ति के उत्साहमान में शरद ऋतु की कल्पना की जा सकती है।
द्वादशोऽध्यायः
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