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________________ कान्ताऽबलानगारोऽपि शय्यादिषु बसन्नपि । वस्त्रपात्रादि धरणेऽप्यपरिग्रहवान् मुनिः ॥ ११ ॥ अन्वय-कान्ता अबलानगारोऽपि शय्यादिषु वसन् वस्त्रपात्रादि. धरणे अपि मुनि अपरिग्रहवान् ॥ ११॥ अर्थ-स्त्री कितनी ही समर्थ हो फिर भी वह अबला कही जाती है वैसे ही साधु भी शय्या आदि रखते हुए एवं वस्त्र पात्र धारण करते हुए भी अपरिग्रही होता है । माया विहीनं ब्रह्मैव कैवल्याय एव विचिन्त्यते । / साक्षरो वा सकर्णः स्याच्छास्त्रज्ञोऽनक्षरः परः ॥ १२ ॥ अन्वय-माया विहीनं ब्रह्म कैवल्याय एव विचिन्त्यते परः साक्षरः सकर्णः वा शास्त्रज्ञः अनक्षरः स्यात् ।। १२॥ अर्थ-माया से रहित आत्मा शुद्ध ज्ञान स्वरूप परमात्मा मानी जाती है। दूसरा अज्ञानी आत्मा भले ही वह साक्षर हो अथवा बहुश्रुत हो, वह निरक्षर ही मानी जाती है। विवेचन-बौद्धिक विकास कितना ही क्यों न हो स्वयं को जानने के लक्ष्य को चुकनेवाले को ज्ञानी कैसे कहेंगे ? आखुकुर्कुरमार्जारैः सद्भिः कोऽपि न गोधनी । धनी वा रेणुभस्मोघैस्तथा ज्ञानी भवोन्मुखः ॥ १३ ॥ अन्वय-आखुकुकुरमार्जारैः सद्भिः कोऽपि न गोधनी वा रेणुभस्मौधैः न धनी तथा भवोन्मुखः न ज्ञानी ॥१३॥ अर्थ-(क्योंकि) चूहे, कुत्ते व बिल्लियों के घर में रहते हुए भी कोई गोधनी नहीं माना जाता एवं धूल तथा भस्म के ढेर होते हुए भी कोई धनी नहीं कहा जाता वैसे ही संसार की वृत्ति वाला कोई भी व्यक्ति ज्ञानी नहीं माना जा सकता है। अर्थात् आत्मा से पराङ्मुख व्यक्ति के लिये तो एकादशोऽध्यायः १०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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