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शास्त्रका हो या अन्य प्रकारका, सर्व प्रकार का ज्ञान संचय धूल के ढेर समान निकम्मा है।
योयं संश्रयते मार्ग स तं शुद्ध प्रपद्यते । तत्शुद्धज्ञानलाभाय परीक्षैषा विधीयताम् ॥ १४ ॥
अन्वय-यः यं मार्ग संश्रयते स तं शुद्धं प्रपद्यते तत् शुद्धशान लाभाय एषा परीक्षा विधीयताम् ॥१४।।
अर्थ-( कुमार्ग को छोड़कर ) जो इस मार्ग को पकड़ता है वह उसे विशुद्ध रूप से प्राप्त करता है अतः शुद्ध ज्ञान की प्राप्ति के लिए मेरे बताए मार्ग की परीक्षा करो। अर्थात् भगवान कहते हैं कि तुम भी अनुभव से गुजर कर इस मार्ग को पहचानो।
बलिना छलिनाप्युच्चैः कलिना मलिनात्मना । नाश्यं शुद्धमशुद्धं च प्रकाश्यं तन्मयो ह्यम् ॥ ॥ १५ ॥
अन्वय-छलिना कलिना बलिना मलिनात्मना उच्चैः अशुद्धं नाश्यं शुद्ध प्रकाश्यं अयं हि तन्मयः ॥ १५ ॥
अर्थ-छलमयी (प्रकृति) एवं कलियुग के प्रभाव से बलात् दूषित आत्मवान् को (मैत्री करूणा प्रमोद और मध्यस्थ आदि) उच्च भावना से अशुद्ध ज्ञान को नष्ट करना चाहिए एवं शुद्ध ज्ञान को प्रकाशित करना चाहिए क्योंकि आत्मा स्वयं शुद्ध ज्ञानमय है ।
विवेचन-अघट घटियसी अर्थात् असंभव को संभव करनेवाली यह माया विचित्र छलरुप पटल में अपने को छूपा के जीवको संमोहित करती है इससे मुक्ति कैसे होती है? उपाय है मलिन भावनाओंका मैत्री आदि उच्च भावनाओ में सतत् चिंतन से परिवर्तन करना, सद्भावनाओ के सेवन से आंतर मलका नाश होकर चित्त में प्रज्ञाका प्रकाश होता है। स्थितप्रज्ञ आत्मार्थी तर्क ओर वितर्कका त्याग करके इन्द्रिय निरोध से, प्रकृतिरुपी माया से स्वयं की ओर प्रतिक्रमण करता है। आत्मा को, आत्मा के बल से, आत्मा के लिये आत्मा में देखने से शुद्ध ज्ञान स्वरूप आत्म सूर्य के प्रकाश में मायारूपी तमस् के आवरण का क्षय होता है।
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अर्हद्गीता
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