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________________ अर्थ - हेय और उपादेय रूप विवेक को बताने वाले शुद्ध ज्ञान को ही ग्रहण करना चाहिए इस शुद्ध ज्ञान के अभाव में जीव अज्ञानी ही है । क्योंकि अज्ञान से उसका कोई काम सफल नहीं होता है जिस प्रकार लार चाटने से प्यास नहीं मिटती है। अर्थात् जीवन के व्यवहार में भी उचित और अनुचित का ज्ञान न हो तो कोई कार्य सफल नहीं होता है तो आत्मार्थी को तो सदाकाल आत्मा और अनात्मा या स्व और पर के जाग्रत विवेकज्ञान बिना सिद्धि संभव नहीं है 1 यथैवानुदराकन्याप्यलोमा एडका पुनः । लोमाहारेऽप्यनशनी युक्त चेलोऽप्यकिञ्चनः ॥ १० ॥ अन्वय-यथा कन्या अनुदरा एडका अलोमा पुनः लोमाहारे अपि अनशनी युक्त चेलः अपि अकिञ्चनः ॥ १० ॥ अर्थ-व्यवहार में जिस प्रकार कन्या उदर से जन्मी होती है फिर भी उसे अनुदरा कहा जाता है । भेड़ लोम से युक्त होती हैं पर उसे अलोमा कहा जाता है, उपवास आदि में लोगों का आहार करते हुए भी साधुको अनशनी कहा जाता है एवं वस्त्र सहित होने पर साधु को अकिञ्चन कहा जाता है । कन्या से वंश परम्परा नहीं चलती है अतः उसे अनुदरा कहा जाता है । भेड़ के बाल निरन्तर कटते रहते हैं अतः उसे अलोमा कहा जाता है । लोम जो सूक्ष्मातिसूक्ष्म वायवीय पदार्थ के रूपमें जो सर्वत्र तैरते रहते हैं वह श्वासोच्छ्वास से मानव शरीर का आहार बनते रहते हैं । किंतु उससे उपवासी का व्रतभंग नहीं माना जा सकता है । १०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only अर्हद्गीता www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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