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________________ हेयमेयमुपादेयमादेयमपि हीयते । द्रव्यक्षेत्रकालभावैः स्याद्वादस्यादरस्ततः ॥ ८॥ अन्वय-द्रव्यक्षेत्रकालभावैः हेयं एवं उपादेयं उपादेयं अपि हीयते ततः स्याद्वादस्य आदरः ॥८॥ अर्थ-द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा से कभी हेय भी उपादेय हो जाता है एवं कभी उपादेय को भी छोड़ना पड़ता है इसी से वस्तु के वास्तविक तत्त्व को जानने के लिए स्याद्वाद शैली का महत्व है। विवेचन-अलग अलग अपेक्षा से, स्याद्वाद की शैली से हम तत्त्व को जानने की कोशीष क्यों करते है ? कारण है विवेक बुद्धि को विकसित करने का, जिससे हम त्याज्य को ग्रहण न करें और ग्राह्य को छोड़ न दें। वस्तु स्वभाव के द्रव्य क्षेत्र काल और भाव की अपेक्षा से पर्यायोंका भेद कर के भी तत्त्व विचार होता है। एक ही आम्रफल पहले कच्चा और बादमें पक्व होता है । द्रव्यका गुण बदलता है। क्षेत्र से हापूस, पायरी, केशर आदि अनेक प्रकार के आम्रफल होते हैं। काल से, ग्रीष्म काल के और अन्य कालके आम्रफल अलग होते हैं। भावद्रष्टि से यह आम्रफल के गंध, स्वाद, रूप और रंग के भेद होते हैं। इस तरह जो अनेक प्रकार के आम्रफल धर्म विधान अनुसार ग्राह्य होते हैं, जैसे कि गोवा में ग्रीष्म काल में पकती हूई पीत वर्णकी स्वादिष्ट हापूस । स्वस्थ व्यक्ति के लिये जो ग्राह्य हैं वह उत्तम फल रुग्ण व्यक्ति को त्याज्य होंगे। विष त्याज्य होते हुए भी औषधि के रूप में ग्राह्य है। किंतु उपवासी के लिये तो सर्व खाद्य पदार्थ और औषधि भी वर्ण्य होंगे। अलग अलग अपेक्षा से संयोग अनुसार उचित और अनुचित का विवेक होता है। स्याद्वाद की भाषामें ही अलग अलग अपेक्षा के अनुसार विवेकज्ञान का निरूपण हो सकता है। ज्ञानं विशिष्टमादेयं हेयोपादेयगोचरम् । अज्ञानी तद्विना जन्तुर्लालापानानचाम्बुपः ॥९॥ अन्वय-हेयोपादेयगोचरम् विशिष्टं ज्ञानं आदेयं तद् विना जन्तुः अज्ञानी। लालापानात् न च अम्बुपः ॥९॥ एकादशोऽध्यायः ०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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