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अन्वय-अज्ञानात् अर्थः अपि अनर्थहेतुः किन अब उचमस्पृशाम् चतुर्णा वणिजां दृष्टान्तात् कुमतिं त्यज ॥५॥
अर्थ-अज्ञान के कारण धन भी अनर्थ करने वाला क्यों नहीं होगा ? यहाँ हमें उद्यमशील चार वणिक् पुत्रों के दृष्टान्त से अज्ञान की मूल कुमति को छोड़ देना चाहिए।
विवेचन-धन यानि अर्थ भी अज्ञान से अनर्थकारी बनता है। जो शानियों के लिए सुख का कारण बनता है वही धन अज्ञानी के लिए उपाधिकारक सिद्ध होता है। अर्थात् विवेकी के लिये जो सुख का हेतु है वह उसके अभाव में दुःखदायी ही होता है।
गव्यं दुग्धमुपादेयं हेयमर्कस्नुहीभवम् । तथा ज्ञानमुपादेयमेकं हेयं विवेकिना ॥ ६ ॥
अन्वय-विवेकिना गव्यं दुग्धं उपादेयं अर्कस्नुहीभवं हेयं तथा ‘ज्ञानं उपादेयं एकं हेयम् ॥ ६ ॥
अर्थ-जैसे विवेकी पुरुष गाय का दूध ग्रहण करता है तथा आक थूहर आदि का दूध त्याज्य होता है वैसे ही विवेकी पुरुष को सम्यग ज्ञान ग्रहण करना चाहिए तथा दूसरे अज्ञान को त्याग देना चाहिए।
येनात्मनः स्यादानन्दः केवलो मायया विना । तदावाच्यं सुखं मोक्षं तत्र भिल्लनिदर्शनम् ॥ ७ ॥
अन्वय-येन आत्मनः आनन्दः स्यात् केवलः मायया विना । तत् मोक्षं सुखं अवाच्यं तत्र भिल्लनिदर्शनम् ॥ ७॥
अर्थ-जिस ज्ञान से आत्मा को केवल आनन्द प्राप्त हो वह शुद्ध ज्ञान माया के अभाव में ही सम्भव है। वह मोक्ष सुख अनिर्वचनीय होता है जिस प्रकार भील को राज सुख मिलने पर वह उसका वर्णन नहीं कर सकता है। अर्थात् निर्मोही महा ज्ञानी के आंतरीक सुखको अनुभवसे ही जाना जा सकता है।
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अर्हद्गीता
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