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यस्मादेहे सुखं स्वल्पं महदःखं तथात्मनः । तद्ज्ञानं तत्त्वतो नेष्टं श्रेष्ठं येनात्मनः सुखम् ॥ ३॥
अन्वय-यस्मात् देहे स्वल्पं सुखं तथा आत्मनः महद् दुःखं तद्रानं तत्त्वतः न इष्टं, श्रेष्ठं येन आत्मनः सुखम् ॥ ३॥
अर्थ-जिस ज्ञान से इस शरीर को थोड़ा सुख पर आत्मा को महत् कष्ट हो वह ज्ञान तात्त्विक रूप से ज्ञान नहीं है। श्रेष्ठ ज्ञान तो वही है जिस से आत्मा को सुख हो।
विवेचन-शराबी या कामी में बुद्धिज्ञान का अभाव नहीं है किंतु वर्तमान में क्षणिक भोगसुख पाने के लिये उन्मत्त होकर जो भावि में होनेवाले महान दुःख से अज्ञान रहता है वैसे मूढ़ को ज्ञानी कैसे माना जाय ? और आत्मकल्याण के लिये द्रढ़ निश्चयी महात्मा अगर काया का कष्ट भोगता हुआ दिखायी दे तो क्या उसे हम स्वयं का सुख खोजने में अज्ञानी समझेंगे ?
विषमिश्रपयः पान-समानं स्याद्भवे सुखम् । पुद्गलानामुपादानात् प्रत्युतानर्थकारणम् ॥ ४॥
अन्वय-भवे सुखं विषमिश्रपयःपानसमानं स्यात् पुद्गलानां उपादानात् प्रत्युत अनर्थकारणम् ॥ ४॥
अर्थ-संसार में प्राप्त शरीर के स्वल्प सुख भोग विषमिश्रित दुग्धपान के समान हैं क्योंकि वह सुख कर्म बन्धन का कारण होने के कारण उल्टा अनर्थ करने वाला होता है। अर्थात् क्षणिक सुख के भोग से होने वाला कर्म बन्धन बड़े भारी दुःख का कारण होता है।
विवेचन-विष मिश्रीत दुग्धपान से किंचित् सुखका आभास तो होता है किंतु अंतमें जहाँ अनर्थकारी परिणाम हो वहाँ वास्तविक सुख कैसे माना जाय ? इस भाँति इन्द्रियजन्य सर्व सुख अंत में दुःखदायी होने से विष समान और त्याज्य है।
अर्थोऽप्यनर्थहेतुः किं नाज्ञानादुद्यमस्पृशाम् । चतुर्णा वणिजामत्र दृष्टान्तात् कुमतिं त्यज ॥ ५ ॥
एकादशोऽध्यायः
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