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एकादशोऽध्यायः
श्री गौतम उवाचऐन्द्रो धर्मः स्मृतं ज्ञानमात्मधर्मस्य निश्चयात् । तदा नाऽधर्मवान् कोऽपि चैतन्यात् सर्वजन्तुषु ॥१॥
अन्वय-आत्मधर्मस्य निश्चयात् ज्ञानं ऐन्द्रो धर्मः स्मृतम् । तदा सर्वजन्तुषु चैतन्यात् न कोऽपि अधर्मवान् ॥ १॥
अर्थ-श्री गौतमस्वामी ने पूछा हे भगवान् ! जब आत्म धर्म के निश्चय से ज्ञान ही आत्मा का धर्म है तब सभी जीवों में चैतन्य होने के कारण वे सभी धर्मवान् हैं उनमें कोई भी अधर्मी नहीं है।
श्री भगवानुवाचज्ञानं द्विधा मयाम्नातं स्वभावात् शुद्धमात्मनः । अशुद्धं पुद्गलोपाधेराधं धर्मोऽन्यथा परम् ॥ २ ॥
अन्वय-मया आत्मनः द्विधा ज्ञानं आम्नातं स्वभावात् शुद्धं पुद्गलोपाधेः अशुद्धं आद्यं धर्मः परं अन्यथा ॥२॥
अर्थ-श्री भगवान ने (धर्म अधर्म का भेद स्पष्ट करते हुए) कहा कि आत्मा के दो प्रकार के ज्ञान मैंने विहित किए हैं ; एक तो शुद्ध स्वभावी एवं दूसरा पुद्गल के संसर्ग से अशुद्ध। प्रथम प्रकारका ज्ञान धर्म है एवं दूसरे प्रकार का ज्ञान धर्म नहीं है।
विवेचन-ज्ञान ही आत्मा का धर्म है। इस तत्त्व को सापेक्षद्रष्टि से देखन. होगा। जीवन व्यवहार में इस बोध का मिथ्या द्रष्टि से ग्रहण अनर्थकारी हो सकत, है। जगत के प्रति वैराग्यभाव से उत्पन्न आत्मबोध और मोहभाव से उत्पन्न अन्य प्रकार का बोध वैसे दो प्रकार के ज्ञान कहे गये हैं। दूसरे प्रकार का बोध मिथ्या ज्ञान या अज्ञान ही है क्योंकि वह कर्मबंधन का हेतु है और पुद्गल में सुख पाने की आसक्ति से उत्पन्न होता है ।
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अहंद्गीता
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