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अर्थ-जैसे सूर्य के प्रतिबिम्ब में भी सूर्यत्व विद्यमान है वैसे ही जिनबिम्ब में भी जिनेश्वर भगवान का गुण विद्यमान है। देखिए उचित आहार विहार करते हुए साधु भी हिंसा करता है फिर भी अहिंसाका भाव होने से वह अहिंसक ही होता है।
अनास्रवः केवलीति सत्यप्यास्रवसप्तके । बद्धदेवायुषो देवो वाच्यः सति नृजन्मनि ॥ १८॥
अन्वय-आस्त्रवसप्तके सति अपि केवली अनास्रवः, नृजन्मनि सति बद्धदेवायुषः देवः वाच्यः ॥१८॥
अर्थ-केवलियों को (औदारिक, औदारिक मिश्र, कार्मणकाययोग २ वचन के व २ मन के) सात कर्म पुद्गल के आस्रव होने पर भी वे अनास्रवी होते हैं क्योंकि उनका कर्म बन्धन नहीं होता है। वैसे ही मनुष्य जन्म में होते हुए भी जिसने देवता का आयुष्य बंधन कर लिया है उसे देवता ही कहा जाता है।
अल्पेऽभावविवक्षातः क्वचिद्वाहुल्यचिन्तया । पक्षे सिताऽसितत्वादि व्यवहारदिशा क्वचित् ॥ १९ ॥
अन्वय-पक्षे सित असितत्वादि। व्यवहारदिशा क्वचित् बाहुल्यचिन्तया क्वचित् अल्पे अभाव विवक्षातः ॥ १९ ।।
अर्थ-पक्षी के पंख में सफेदी व कालापन भी होता है पर व्यवहार दृष्टि से कहीं किसी रंग की अल्पता होती है तो उसका अभाव ही माना जाता है जैसे काले पंख में सफेदी का थोड़ा हिस्सा होता है तो भी उसे काला ही कहा जाता है। स्थूल द्रष्टि से देखकर यहाँ बाहुल्य को महत्त्व दिया जाता है।
विवेचनतत्त्व स्वरूप का विशद प्रकाश होते हुए भी इष्ट और अनिष्ट को पूर्णतया समझना कितना मुश्किल है यह दिखा के अपवाद् धर्म का स्वरूप आगे दिखाया है।
दशमोऽध्यायः
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