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________________ विधेयेऽपि निषिद्धत्वं निषिद्धेषु विधेयताम् । आगमेऽपि समादेशि वीरेण जगदीशिना ॥ २० ॥ अन्वय- विधेयेऽपि निषिद्धत्वं निषिद्धेषु विधेयतां जगदीशिना वीरेण आगमेऽपि समादेशि ॥ २० ॥ अर्थ-जगत के स्वामी वीर भगवान ने आगम में भी करणीय कार्य का निषेध तथा निषिद्ध कार्य को करने का आदेश दिया है । धर्म में उत्सर्ग और अपवाद दो मार्ग होते हैं। गीतार्थ मुनियों ने अपवाद धर्म के रूप में विशिष्ट परिस्थिति में करणीय कार्यका निषेध तथा निषिद्ध कार्य को करने का आदेश दिया है। जैसे कि महामुनि स्थूलभद्र का कोशा गणिका के भवन में चातुर्मास ठहरना आदेश या निषेध का हेतु धर्म का पालन ही होता है । इसलिये असामान्य परिस्थिति में कार्य करणीय होता है और करणीय का निषेध होता है वैसे अपवाद धर्म का गुरु शरण बिना सही ज्ञान नहीं होता है । तस्माद्बहुश्रुतैः पूर्वैराचीर्णश्चिरणोद्यतैः ! धर्मः शर्मकरः कार्यः श्रद्धेयस्तत्त्वकांक्षिभिः ॥ २१ ॥ अन्वय-तस्मात् चरणोद्यतैः पूर्वैः बहुश्रुतैः आचीर्णः शर्मकरः धर्मः तत्त्वकांक्षिभिः श्रद्धेयः कार्यः ॥ २१ ॥ अर्थ - ( धर्म की गति गहन है) इसीलिए चारित्रमार्ग पर तत्पर बहुश्रुत पूर्वाचार्यों द्वारा आचरित सुखकारी धर्म पर मोक्षाभिलाषियों को श्रद्धा करनी चाहिए । अर्थात् स्वतंत्र बुद्धि से नहीं किंतु गुरुसे ही ज्ञान प्राप्त होता है । अतः गुरु के शरण में ज्ञानधर्म की उपासना करनी चाहिये । || इति दशमोऽध्यायः ॥ १००. Jain Education International For Private & Personal Use Only अर्हद्गीता www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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