________________
मिथ्यादृष्टिरतोऽज्ञानी ज्ञानी विमलदर्शनी । यो यत्रानुपयुक्तोऽयं द्रव्यजीवस्तदा तथा ।। १५ ॥
अन्वय-मिथ्यादृष्टिः अतः अज्ञानी। विमलदर्शनी ज्ञानी तथा यः यत्र अनुपयुक्तः तदा अयं द्रव्यजीवः ॥ १५॥
अर्थ-मिथ्यादृष्टि होने से अज्ञानी है। सम्यग्दृष्टि होने से ज्ञानी है। और जब वह आत्मा उपयोग रहित होता है तब वह द्रव्य जीव कहा जाता है।
विवेचन-उपयोग का अर्थ है चित्तका अवधान। ज्ञान, दर्शनयुक्त परि णमन। एवंभूत नयसे, उपयोग के लक्षण से, अज्ञानी, सम्यक्ज्ञानी और जड़ ऐसे जीवके तीन भेद दिखाये गये हैं।
अमुक्त मुक्ततापीष्टा जिने राजर्षिता मुनौ। असाधोरतिमुक्तस्य साधुसेवागमोदिता ॥ १६ ॥
अन्वय-अमुक्ते जिने अपि मुक्तता इष्टा मुनौ राजर्षिता अति मुक्तस्य असाधोः साधुसेवा आगमोदिता ॥१६॥
अर्थ-अमुक्त जिनेश्वर में भी मुक्ति इष्ट रहती है मुनि त्यागशील होते हैं फिर भी उनमें राजार्षिर्पन-ऐश्वर्य भाव इष्ट रहता है जैसे कहते हैं मुनिराज पधार रहे हैं। अतः साधु धर्म की विराधना करते हुए भी अतिमुक्त साधु की भी सेवा शास्त्रोक्त है। (अतिमुक्त का अर्थ है अपूर्ण आचरण वाला साधु )।
सूर्यविम्बेऽपि सूर्यत्वं जिनबिम्बे जिनागमः । युक्ताहारविहारादौ साधुर्हन्ताप्यहिंसकः ॥ १७ ॥
अन्वय-सूर्य बिम्बे अपि सूर्यत्वं जिनबिम्बे जिनागमः। युक्ता हारविहारादौ हन्ता साधुः अपि अहिंसकः ॥ १७॥
अर्हद्गीता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org