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धर्मस्य मूलं विनयः स्वरूपं नियमा यमाः। विस्तारः पंचधाचारः फलं चास्यापुनर्भवः ॥ १७ ॥
अन्वय-धर्मस्य मूलं विनयः, नियमा यमाः स्वरूपं, विस्तारः पंचधाचारः, अपुनर्भवः च अस्य फलम् ॥ १७ ॥
___अर्थ-इस धर्म का मूल विनय है, यम नियम इसका स्वरूप है । पंचाचार इसका विस्तार है और इसका फल मोक्ष प्राप्ति है।
धर्मध्यानान्मनःशौचं वाक्शौचं सत्यनिश्चयात् । दयाचरणतः कायशौचमालोचयेन्मुनिः ॥१८॥
अन्वय-धर्मध्यानात् मनःशौचं, सत्यनिश्चयात् वाक्शौचं दयाचरणतः कायशौचं मुनिः आलोचयेत् ॥ १८ ॥
अर्थ-साधु को चाहिए कि वह धर्मध्यान से मन की शुद्धि करे, सत्य भाषा से वाणी की शुद्धि करे एवं भूत मात्र प्राणीमात्र के प्रति दया के आचरण से शरीर की पवित्रता का सम्पादन करे। इस प्रकार मन वचन एवं काया की शुद्धि होगी ।
शौचं च द्रव्यभावाभ्यां यथार्ह चाहतास्मृतम् । अस्वाध्यायं निगदता दशधौदारिकोद्भवम् ।। १९ ॥
अन्वय-यथार्ह औदारिकोद्भवं दशधा अस्वाध्यायं निगदता च अर्हता द्रव्यभावाच्यां शौचं स्मृतम् ॥ १९ ।।
अर्थ-स्वाभाविक रूपसे उदर से उत्पन्न दस प्रकार की अशुचियों का कथन करते हुए अरिहंत भगवन्तों ने शौच को द्रव्य एवं भाव से दो प्रकार का कहा है।
कुदेवे कुत्सिता भक्तिः कुज्ञानं कुगुरोर्भवेत् । कुलिंगाधर्म कुत्सैव ज्ञेया श्रीधनपालवत् ॥ २० ॥
अर्हद्गीता
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