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अपभ्रंश में (संज्ञा के अंत्य) 'अ' कार के बाद आते 'टा' (= तृतीया एकवचन के 'आ' प्रत्यय) का 'ण' और अनुस्वार (इस प्रकार दो) आदेश होते हैं । दइएं पवसन्तेण (देखिये सू. 333)
उदा०
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वृत्ति
उदा०
शब्दार्थ
एं चेदुतः ॥ '०ई' और 'उ' के बाद '-एं' भी। अपभ्रंशे इकारोकाराभ्यां परस्य टावचनस्य 'एं', चकारात् णानुस्वारी च भवन्ति । 'एं। अपभ्रंश में (संज्ञा के अस्य) 'इ'कार और 'उ'कार के बाद आते 'टा' ( = तृतीया एकवचन का 'आ') प्रत्यय का '-ए" और (सूत्र में आते) 'च'कार से, 'ण' तथा अनुस्वार होता है । (जैसे कि) '-एं' :(१) अग्गिएँ उण्हउँ होइ जगु वाएं सीअलु तेव ।
जो पुणु अग्गि सीअला तसु उण्हत्तणु केव ॥ अग्गिएँ-अग्निना । उहउँ-उष्णम् । होइ-भवति । जगु-जगत् । वाएं-. वातेन । सीअलु-शीतलम् । तेव-तथा । जो-यः । पुणु-पुनः । अग्गि-अग्निना । सीअला-शीतलः । तसु-तस्य । उहत्तणु-उष्णत्वम् । केव-कथम् ।। जगत अग्निना उष्णम् भवति, तथा वातेन शीतलम् । यः पुनः अग्निना
शीतल: (भवति), तस्य उष्णत्वम् कथम् ॥ जगत (समस्त) अग्नि से उष्ण होता है, तथा पवन से शीतल । परंतु
जो अग्नि से शीतल (होता हो), उसका उष्णत्व किस भौति (सिद्ध किया जाये) १ णानुस्वारौ। '-ण' और अनुस्वार :(२) विप्पिअयारउ जइ वि प्रिउ तो वि त आणहि अज्जु ।
अग्गिण दड्ढा जइ कि घरु. तो तें अग्गि कन्जु ।।
छाया
अनुवाद
वृत्ति
उदा०
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