________________
छाया
अनुवाद (सोने के लिर) पहाड से शिलातल, (और भोजन के लिए) वृक्ष से
फल बिना (किसी) भेदभाव के (अरण्य में) लिए जा सकते हैं । फिर
भी इन मनुष्यों को घर छोड़कर अरण्य (में रहना) भाता नहीं है । वृत्ति भ्यसो 'हुँ।
'भ्यस' का हुँ' :उदा० (२) तरुहुँ वि वकलु फलु मुणि-वि परिहणु असणु लहंति ।
सामिहुँ एत्तिउ अग्गलः आयरु भिच्च गृहति ॥ शब्दार्थ तहुँ-तरुभ्यः । वि-अपि । वक्कलु-वल्कलम् । फलु-फलम् । मुणि-मुनयः ।
वि-अपि । परिहणु-परिधानम् । असणु-अशनम् । लहंति-लभन्ते । सामिहुँ-स्वामिभ्यः । एत्तिउ-इयत् । अग्गलउँ-अधिकम् । आयरु-आदरम् । भिच्च-भृत्याः । गृहति-गृह्णन्ति । तरुभ्यः अपि मुनयः वल्कलम् परिधानम् फलम् अपि भोजनम् लभन्ते ।
स्वामिभ्यः (तु) भृत्याः आदरम् गृह्णन्ति इयत् अधिकम् ॥ अनुवाद वृक्षों से भी मुनिओं को परिधान (के रूप में) वल्कल (और) भोजन
(के रूप में) फल भी मिलते हैं । (परंतु) स्वामिओं से सेवक आदर पाते हैं इतना विशेष (- सेवकों को आदर भी मिलता है जो
विशेष है)। वृत्ति र 'हि' ॥
'ङि का '-हि' :
(३) अह विरल-पहाउ जि कलिहि धम्मु ।। शब्दार्थ अह-अथ । विरल-पहाउ-विरल-प्रभावः । जि-एव । कलिहि-कलौ ।
धम्मु-धर्मः । छाया अथ कलौ धर्मः विरल-प्रभावः एव ।। अनुवाद अथ (अथवा, यदि) कलियुग में धर्म विरल प्रभाववाला ही है तो342
आहो णानुवारौ ॥ 'अ' के बाद के 'टा' का 'ण' और अनुस्वार । वृत्ति अपभ्रंशेऽकारात् परस्य टा-वचनस्य णानुस्वारावादेशौ भवतः ॥
उदा०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org