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छाया
अनुवाद
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वृत्ति
जणु-जनः । लग्गिवि-लगित्वा । उत्तरह-उत्तरति । अह-अथ । सह-सह । सइ-स्वयम् । मज्जंति-मज्जन्ति ॥ तृणानाम् तृतीया भङ्गी नैव । (यतः) तानि अवट-तटे वसन्ति । अथ जनः लगित्वा उत्तरति, अथ (तानि) स्वयं (तेन) सह मज्जन्ति ॥ तिनकों की तीसरी गति (भंगि) ही नहीं है. (क्योंकि) वे पानी के गड्ढे के कगार पर रहते हैं-या तो मनुष्य (उनसे) लटककर (उस) पार जाता है या फिर (वे) भी (मनुष्य के साथ डूबते हैं ।
हुँ चेदुद्भ्याम् ।। 'इ' और 'उ' के बाद हुँ' भी । अपभ्रंशे इकारोकाराभ्यां परस्यामो हुँ' 'ह' चादेशौ भवतः । अपभ्रंश में (संज्ञा के अंत्य) 'इ'कार और 'उ'कार के बाद आते 'आम्' (षष्ठी बहुवचन का प्रत्यय) का '-हुँ' और '-ह' ऐसे दो परिवर्तन होते हैं । (१) दइवु घडावई वणि तरुहुँ सउणिहुँ पक्क-फलाई ।।
सो वरि सुक्खु, पइट्ठ न-वि कण्णहि खल-वयणाइँ ॥ दइवु-दैवः। घडावइ-घटयति । वणि-वने । तरुहुँ-तरूणाम् ( = तरुषु)। सउणिह-शकुनीनाम् । पक-फलाइ-पक्क-फलानि । सो-सः (= तद्) । वरि-वरम् । सुक्खु-सौख्यम् | पइट्ठ-प्रविष्टानि । न-वि-नापि, नैव । कहिँ -कर्णयोः । खल-वयणा इ-खल-वचनानि ।। वने दैवः शकुनीनाम् (कृते) तरूणाम् (- तरुषु) पक्क-फलानि घटयति । तद् वरम् सौख्यम् , नैव कर्णयोः प्रविष्टानि खल-वचनानि ॥ वनमें विधाता पक्षिओं के लिये वृक्ष पर पक्व फलों की रचना करता (ही) है । उत्तम तो वह (वनवास में फलभक्षण का) सुख, नहिं कि कानों में घूसे हुए दुर्जनों के बोल । प्रायोऽधिकारात् क्वचित् सुपोऽपि हुँ' । (आगे, सूत्र 329 में) अधिकृत किये हुए प्रायः शब्द से, क्वचित् 'सुप,' (= सप्तमी बहुवचन का 'सु' प्रत्यय) का भी 'हुँ' आदेश (होता है)।
उदा०
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