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वृत्ति
उदा०
उसः सु-हो-स्सवः ॥ . . 'डम्' का 'सु' 'हो' और 'सु' अपभ्रंशेऽकारात् परस्य ङसः स्थाने 'सु' 'हो, स्सु' इति त्रय आदेशा भवन्ति ॥ अपभ्रंश में (संज्ञाके अत्य) 'अ'कार के बाद आते 'स' (षष्ठी एकवचन का '-अस' प्रत्यय) के स्थान पर 'सु' 'हो, ‘स्सु' ऐसे तीन आदेश होते हैं । जो गुण गोवइ अप्पणा पयडा करइ परस्सु । तसु हउँ कलि-जुगि दुल्लहहो बलि किज्जउँ सुअणस्सु ॥ जो-यः । गुण-गुणान् । गोवइ-गोपयति । अप्पणा-आत्मीयान् । पयडा-प्रकटान् । करइ-करोति । परस्सु-परस्य । तसु-तस्मै । हउँ-अहम् । कलि-जुगि-कलि-युगे । दुल्लहहों-दुर्लभस्य । बलि किज्जउँ-बली क्रिये । सुअणस्सु-सुजनाय ॥ यः आत्मीयान् गुणान् गोपयति, परस्य (तु) प्रकटान् करोति तस्मै कलियुगे दुर्लभाय सुजनाय अहम् बलीक्रिये ॥ जो अपने गुण छिपाते हैं, (किंतु) दूसरों के प्रकट करते हैं ऐसे कलियुग में दुर्लभ सज्जन पर मैं बलिदान के रूप में दिया जाता हूँ (=अपने आपका बलिदान देता हूँ, न्यौछावर होता हूँ) ।
शब्दार्थ
... छाया
अनुवाद
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वृत्ति
आमो हैं॥ 'आम्' का '-हैं। अपभ्रशेऽकारात् परस्यामो हमित्यादेशो भवति ॥ अपभ्रंश में (संज्ञा के अंत्य) 'अ'कार 'के' बाद आते 'आम्' (=षष्ठी बहुवचन का प्रत्यय) का ‘हँ' ऐसा आदेश होता है । तणहँ तइज्जी भंगि न-वि ते अवह-यडि वसंति ।
अह जणु लग्गिवि उत्तरइ अह सह सइँ मज्जंति ॥ तणहँ-तृणानाम् । तइज्जी-तृतीया । भंगि-भङ्गी । न-वि-नापि, नैव । ते-तानि | अवड-यडि-अवट-तटे । वसंति-वसन्ति । अह-अथ ।
उदा०
शब्दार्थ
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