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उदा०
शब्दार्थ जे-ये । महु-मह्यम् । दिण्णा - दत्ता: ।
छाया
अनुवाद
334
वृत्ति
जे महु दिष्णा दिअहडा दइएं पवसंतेण । तोण गणंतिऍ अंगुलिउ जज्जरिआउ नहेण ||
छाया
वसंतेण - प्रवसता | ताण - तेषाम् ( = तान् ) अंगुलिउ–अङ्गव्यः । जज्जरिआउ - जर्जरिताः दयितेन प्रवसता ये दिवसाः मह्यम् दत्ता: (मम) अङ्गल्यः नखेन जर्जरिताः ॥
दिअहडा - दिवसाः । दइएं - दयितेन । गणतिएँ - गणयन्त्याः ।
। नहेण - नखेन ॥
तेषाम् (= तान् ) गणयन्त्याः
प्रवास में जाते समय प्रियतमने मुझे ( अवधि के ) जो दिन दिये थे, वे गिनते ( गिनते मेरी ) ऊँगलियाँ नाखुन लगने पर जर्जरित हो गयी ।
हिनेच्च ॥
'ङि' के साथ 'इ' भी ।
अपभ्रंशेऽकारस्य ङिना सह इकार एकारश्च भवतः ॥
अपभ्रंश में (संज्ञा के अंत्य) 'अ'कार का 'ङि' (सप्तमी एकवचन का 'इ' प्रत्यय) सहित 'इ' कार तथा 'ए' कार होता है ।
उदा० ( १ ) सायरु उप्परि तणु धरह सामि सु-भिच्चु वि परिहरइ
शब्दार्थ
सम्मा
तलि घल्लइ रयणाइँ | खलाइँ ॥ सायरु - सागरः । उप्पर - उपरि । तणु-तृणम् । घरइ-धरति । तलि-तले । घल्लइ (दे.) - क्षिपति । रयणाइँ - रत्नानि । सामि - स्वाभी । सु-भिच्चुसु-भृत्यम् । वि-अपि । परिहरइ – परिहरति । सम्माणेइ - संमानयति । खलाइँ - खलान् ॥
सागरः तृणम् उपरि धरति, रत्नानि (तु) तले क्षिपति । स्वामी अपि सु-भृत्यम् परिहरति, खलान् (तु) संमानयति ॥ अनुवाद समुद्र तिनके को ( सतह ) पर धारण करता है ( = किये रहता है ), ( जबकि ) रत्नों को तल में डाले रहता है, स्वामी भी अच्छे सेवक का त्याग करता है, (किंतु ) खलों का सम्मान करता है ।
उदा० (२) तले घल्लइ । 'तल में डालता है ।'
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