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________________ छाया शब्दार्थ ____ अगलिअ-नेह-निवडाहँ-अगलित-स्नेह-निवृत्तानाम् । जोमण-लक्खु-योजन लक्षम् । वि-अपि । जाउ-यातु । वरिस-सएण-वर्ष-शतेन । वि-अपि । जो-यः। मिलइ-मिलति । सहि-सखि । सोक्खहँ-सौख्यानाम् । सो-सः। ठाउ-स्थानम् ॥ अगलित-स्नेह-निवृत्तानाम् (अन्यतरः जनः) योजन-लक्षम् अपि यातु । वर्ष-शतेन अपि यः मिलति, सखि, सः सौख्यानाम् स्थानम् ॥ अनुवाद अस्खलित स्नेहयुक्त (रहे हुए) जिन्हे अलग होना पड़ा हो, उनमें का (कोई एक) भले ही ('वि') लाख योजन (दूर) जायें, हे सखी, (उनमें का) जो सौ वर्ष के बाद भी (फिर) मिलें (फिर मी) वह सुखों का धाम (बनता ही है)। वृत्ति पुंसीति किम् । (सूत्र में) 'पुंसि' ('पुल्लिंग में) ऐसा क्यों ? (वैसे कि) :उदा० (२) अंगहिँ अंगु न मिलिउ, हलि अहरें अहरु न पत्तु । पिअ जोअंतिहे मुह-कमलु एवइ सुरउ समत्तु ॥ शब्दार्थ अंगहि -अङ्गः। अंगु-अङ्गम् । न-न । मिलिउ-मिलितम् । हलि-हला। अहरे-अधरेण । अहरु-अधरः । न-न । पत्तु-प्राप्तः । पिअ-प्रियस्य । जोअंतिहे-पश्यन्त्याः । मुह-कमलु-मुख-कमलम् । एवँइ-एवम् एव । सुरउ-सुरतम् । समतु-समाप्तम् । छाया हला, अङ्गः अङ्गम् न मिलितम् , न अधरेण अधरः प्राप्तः । प्रियस्य मुख-कमलम् पश्यन्त्याः एवम् एव सुरतम् समाप्तम् । अनुवाद सखी, न उसके अंगों से (मेरे) अंग मिले, न ही (उसके) अधर तक (मेरे) अधर पहूँचे । प्रियतम के मुखकमल को (एकटक) निहारते (निहारते) मेरा सुरत यों ही ( = देखने की क्रिया में ही) समाप्त हो गया । 333 __ एट्टि॥ 'टा' लगने पर ‘-ए'। वृत्ति अपभ्रंशेऽकारस्य टायामकारो भवति ।। अपभ्रंश में 'टा' (= तृतीया एकवचन का 'आ' प्रत्यय) लगने पर (संज्ञा के अंत्य) 'अंकार का 'ए'कार होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001465
Book TitleApbhramsa Vyakarana Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages262
LanguageApbhramsa, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size12 MB
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