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सिद्धहेम-शब्दानुशासन-गत
अपभ्रंश व्याकरण
[अध्याय 8, पाद 4, सूत्र 329-448 ]
उदा०
वृत्ति
329
स्वराणां स्वराः प्रायोऽपभ्रंशे ॥ ___अपभ्रंश में सामान्य रूप से स्वर के स्वर । वृत्ति अपभ्रंशे स्वराणां स्थाने प्रायः स्वरा भवन्ति ।
(प्रकृति रूप संस्कृत शब्द के) स्वरों के स्थान पर अपभ्रंश में सामान्य रूप से (अन्य) स्वर आते हैं । (१) कन्चु, कच्च; (२) वेण, वीण; (३) बाह, बाहा, बाहु; (४) पहि, पिडि, पुडि; (५) तणु, तिणु, तृणुः (६) सुकिदु, सुकिउ, सुकृदु;
(७) किन्नउ, किलिन्नउ; (८) लिह, लीह, लेह; (९) गउरी, गोरी । छाया
(१) कच्चित् ; (२) वीणा; (३) बाहुः; (४) पृष्ठम् ; (५) तृणम् ; (६) सुकृतम्; (७) क्लन्नकः अथवा क्लन्नकम, (८) लेखा; (९) गौरी। प्रायोग्रहणात् यस्यापभ्रंशे विशेषो वक्यते तस्यापि क्वचित् प्राकृतवत शौरसेनीवच्च कार्य भवति ॥ (सूत्र में) 'प्रायः' शब्द रखा है इसलिए (यह समझना है कि) जिसके बारे में अपभ्रंश में विशिष्ट (परिवर्तन होता है यह) कहा जायेगा, उसके विषय में भी क्वचित् प्राकृत अनुसार तथा शौरसेनी अनुसार कार्य ( = परिवर्तन) होता है ।
स्यादौ दीर्घ-ह्रस्वौ ॥ 'सि' आदि लगने पर दीर्घ और ह्रस्व । वृत्ति अपभ्रंशे नाम्नोऽन्त्य-स्वरस्य दीर्घह्रस्वौ स्वादौ प्रायो भवति । सौ॥
अपभ्रंश में 'सि' (= प्रथमा एकवचन का '० सू) आदि (कारक प्रत्यय) लगने पर संज्ञा का अंत्य स्वर, सामान्य रूप से, (मूल में ह्रस्व हो तो)
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