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________________ (iv) 7. अन्य विशिष्ट प्रयोग : हेत्वर्थ कृदंत के साथ 'न' और 'जा' के रूप मूल क्रिया की अतिदुष्करता या करने की अक्षमता के सूचक हैं । तं अक्खणहँ न जाइ' (350.1) : 'वह कहा नहीं जा सकता' । सुहु भुंजणहि न जाई' (441.1) : 'सुख भोगा नहीं जा सकता' । आधुनिक हिन्दी तथा गुजराती में यह प्रयोग जीवंत है और बिना 'न' को रचना हिंदी में कर्मणि रचना के रूप में स्थिर हुई है। उपसंहार इस विश्लेषण से उपलब्ध सामग्री में 'प्राचीन' और 'आधुनिक' तथा भिन्नदेशीय लक्षणों की मिलावट स्पष्ट दिखाई देती है । आधारभूत उदाहरणों के मूलरूप की देशकालगत विविधता के कारण ऐसा हुआ है । व्यंजनों के लोप के स्थान पर धोषत्व का चलन तथा ऋकार, संयुक्त परवर्ती रकार तथा अकार सुरक्षित रखने का चलन प्राचीनता का सूचक है तो दूसरी ओर संयुक्त व्यंजनों के एकत्व का चलन आधुनिकता का सूचक है । स्वरमध्यवर्ती 'म्' और 'व' तथा संयुक्त परवर्ती 'र' का यथावत् रहना, सकारवाला भविष्य-अंग, 'उज 'वाला भविष्य-आज्ञार्थ, द्वितीय पु. एक व. का 'ई', भूतकृदंत का 'इअय', सम्बन्धक भूत कृ. का 'इउ', हेत्वर्थ का 'एवं', विध्यर्थ कृ. का 'एञ्चय' और पुल्लिंग प्रथमा एक व. का 'अ'-ये प्रत्यय तथा, नपुसकलिंग के रूप-ये सब लक्षण आगे चलकर गुजराती की विशिष्टता बने हैं । तो दूसरी ओर स्वरमध्यवर्ती 'म्' का '+' या लोप तथा 'व' का लोप, संयुक्त परवर्ती 'र' का सारूप्प, हकारवाला भविष्यअंग, सम्बन्धक भूत कृ. का 'इ', हेत्वर्थ के रूप में प्रयुक्त 'ण' प्रत्ययवाले रूप, पुल्लिंग और नपुंसकलिंग का अभेद-ये सब लक्षण आगे चलकर व्रज, खड़ी बोली आदि पश्चिमी हिन्दी भाषासमूह की विशिष्टता बने हैं । हेमचन्द्र के उदाहरणों में कुछ 'मिथ' लक्षण वाले पद्य भी है, जिन में पुं. प्रथमा एक व. के 'अ' और 'आ' वाले भिन्नदेशीय रूप साथ-साथ प्रयुक्त हुए हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001465
Book TitleApbhramsa Vyakarana Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages262
LanguageApbhramsa, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size12 MB
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