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'हउ चिंताह" (362) : 'यह सोचते' | 'जाह अवरोप्पर नोभताह (409) 'जिनके परस्पर देजने पर' | 'देतहाँ हाँ - उवरिय, जुज्झतहों, करवालु' ( 379-2): 'देने पर मैं बची हूँ । युद्ध करते तलवार' ।
आधुनिक गुजराती में 'बोलतां, करतां, फरतां' आदि में यह प्रयोग चला आ रहा है ।
(3) 'प्रति', 'ओर' के अर्थ में : 'कुंजरू अन्नह तरुअरह कोड डेण घल्लइ हत्थु (422.9) : 'हाथी अन्य तरुवर की ओर तो कुतूहल से सूड फेंकता है।' 'सिरु ल्हसित खंधस्तु' (445.3 ) : 'सिर कंधे की ओर झुका है ।' 'साहु लि लोड सस्थावस्थहँ आलवणु करे' (422.2.) : 'स्वस्थ अवस्थावालों के साथ तो सब लोग बोलेंगे ।'
( 4 ) 'ण' प्रत्यय से सिद्ध क्रियावाचक संज्ञा का षष्ठी का रूप हेत्वर्थ कृदंत के रूप में प्रयुक्त होता है । 'भक्खणहँ' (350.1.), भुंनणहँ (441.1.).
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( 5 ) निम्नलिखित क्रिया के योग से :
तुलना और अनुकरणवाचक : उवमिअ : 'सीहहो उवमिअइ' (418.3.) : 'सिंह के साथ तुलना की जाती है' । 'अणुहर' : 'सुपुरिस कंगुहे अणुहरहि" (367.4) : 'सत्पुरुष कांगनी के समान है' ।' 'ससि पिअ अणुहरई' (418.8.) : 'चन्द्र प्रियतम जैसा लगता है । '; 'झा' : 'झाएविणु तत्तस्सु' (440) : 'तत्त्व का ध्यान करके ।' परंतु 'छम्मुहु झावि' (331) में 'झा' द्वितीया के योग से प्रयुक्त हुआ है । 'गण' : 'ताण गणंतिऍ' (333) : 'उनकी गिनती करने पर ।
6. सप्तमी ( 1 ) निरपेक्ष रचना में : 'अवरि निवडिअ ' ( 358 - 2 ) और उसी प्रकार 370.3, 383.2, 396.2, 406.2, 418.8 422.12 और 427.1 इन उदाहरणों में । ( 2 ) 'ण' प्रत्यय से बनी हुई क्रियावाचकसंज्ञा का सप्तमी का रूप हेत्वर्थ कृदंत के रूप में प्रयुक्त होता है : भुंजणहि 441.1.
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