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५. प्रयोग
1. वर्तमान कृदंत प्रथमा एकवचन का रूप क्रियातिपत्त्यर्थ प्रयुक्त होता है : 'जइ
भग्गा घरु एंतु' (351): 'यदि भागकर घर आता'; 'जइ ससि छोल्लिज्जंतु, तो मुह-कमलि सरिसिम लहंतु (395) : 'यदि चन्द्र को छिला गया होता तो मुखकमल के साथ समानता प्राप्त करता ।'
वर्तमान कृदंत का ऐसा अर्थ प्राकृत-युग से ही विकसित हो चूका था । हेमचन्द्र ने प्राकृत विभाग में (सूत्र 8.3.180) इसका उल्लेख किया है।
आधुनिक हिन्दी, गुजराती आदि में यह प्रयोग जीवंत है । 2. 'ण' प्रत्यय से सिद्ध क्रियारूप हेत्वर्थ कृदंत के अर्थ में प्रयुक्त होता है ।
एच्छण 353, करण 441.1.
3. 'व' प्रत्यय से सिद्ध विध्यर्थ कृदंत हेत्वर्य कृदंत के रूप में प्रयुक्त होते हैं ।
देवं 441.1.
विभक्तिप्रयोग : 4. तृतीया : निरपेक्ष (absolute) रचना में : ‘पुत्तें जाएं कवणु गुणु' (395.6) :
'पुत्र जन्म से क्या लाभ ?' 'पुत्ते मुएण कवणु अवगुणु' (395 6): 'पुत्र के मृत्यु से क्या हानि?' 'पिएँ दिनें सुहन्छडी होई' (443.2) : 'प्रिय को देखने से जी जुड़ाता है ।'
5. चतुर्थी/षष्ठी । (1) निरपेक्ष रचना में : 'पिअहों परोक्खहों निद्दडी केव (417.1) : 'प्रियतम
के आँख से दूर होने पर निद्रा कैसी ?'
(2) वर्तमान कृदंतवाली निरपेक्ष रचना में : 'पिअ जोअंतिहे मुह-कमलु'
(332.2): 'प्रियतम का मुख-कमल देखने पर ।'
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