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पंचमी एक व.
सप्तमी
हि
(li)
ज, त, क
ज, त, क, अन्न
एक्क
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'ए' का पुं. 1/2 एक व, में 'एहो ; नपु 1/2 एक व. में 'एउ' और षष्ठी एक व. में 'आ' अंगस्वरवाले 'जासु', 'तासु', 'कासु' ऐसे रूप होते हैं । इसके साथ-साथ प्राकृत के समय से प्रचलित रूपों का प्रयोग भी होता है । स्त्रीलिंग अंग अकारांत या आकारांत होते है - 'ज', 'जा', 'त', 'ता' इत्यादि ।
परसर्ग
जहाँ तहाँ, कहाँ जहि ँ, तहि, अन्न, एकहि ।
कहि
विभक्ति - प्रत्यय से सूचित अर्थसम्बन्ध का कोई छायाविशेष अथवा तो भिन्न ही अर्थसम्बन्ध सूचित करने के लिये संस्कृत में कुछ निश्चित खास रूप प्रयुक्त होते थे । ऐसे रूपों का प्रयोग मध्यम भारतीय - आर्य भूमिका में बढ़ता गया । अर्थ की दृष्टि से ऐसे शब्द अपने मूल अर्थ से हटते गये और व्यक्तित्व की दृष्टि से अन्य शब्दों के प्रभाव के कारण गौण बनते गये । धीरे धीरे विभक्ति - प्रत्ययों का कार्य और स्थान ये परसर्ग लेते गये । भिन्न-भिन्न विभक्तिओं के अलग-अलग प्रत्यय ध्वनिपरिवर्तन के परिणाम रूप एकात्मक बनने लगे, तो भर्थसम्बन्धी उलझने होने लगी । ऐसे में इन उच्छशनों से रास्ता निकालने के लिये प्राकृत की तुलना में अपभ्रंश में नये नये परसर्गों उदाहरणों में इसका दोनों ढंग से प्रयोग हुआ है : तथा विभक्तिप्रत्यय के साथ । इसकी सूचि निम्न प्रकार है :
परसर्गों का प्रयोग बढ़ता गया । का चलन हुआ । हेमचन्द्र के अंग के साथ समस्त रूप में
अनुसार) -
'साथ' के अर्थ में : 'समाणु' (सं. समान; सं. समम् 'साथ' के ( समस्त ) ' पयरक्ख समाणु' 4183: (तृतीया का योग ) ' gohasहि समाणु' 438.5; सहुँ ( = सं. सह ) 419.5, 356 विणु । देखिये शब्दसूचि । तृतीय का योग ।
'बिन' के अर्थ में
:
'में से' के अर्थ में
होंतउ (= 'हो' का वर्त. कृ.) । पंचमी का योग । उदाहरण सूत्र 355, 372 (1), 373 (1), 379 (1) और 380 (1) के नीचे | °टूठिउ ( सं . स्थित ) : ( समस्त ) हिअयट्ठिउ o नीसरह
(439.5) = 'बो हृदय में से नीकले' |
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