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________________ (xivi) कन्न, गोट्ट, दिअह, दूअ, देस, नेह, पच्छायाव, पारक्क, मणिअ, भित्त, मोक्कल, रन्न, रूअ, संदेस, हत्थ, हिअ, हुंकार, (स्त्रीलिंग) अम्म, अन्त्र, गोर, धूलि, निद्द, परिहास, बुद्धि, भ्रति, मब्भीस, मुद्ध, रत्ति, वत्त, सुहच्छि । इसमें 'मणिअडां' में 'अढय' प्रत्यय है । 'बलुल्लडा' में उल्लडय' । पूर्ववर्ती प्रत्यय : अ : नअर्थकः : अगलिअ, अचितिअ, अडोहिअ, अप्पिअ, अलहंतिम । स : सहार्थक : सकण्ण, सरोस, सलज्ज, ससणेही । सु : प्राशस्त्यवाचक : सुअण, सुपुरिस, सुभिच्च, सुवंस । लिंगपरिवर्तन तदभवों का जो लिंग मूल संस्कृत में था वह प्राकृत में और विशेष कर के अपभ्रंश में बदलता रहा है। इसमें मुख्यत: अंत्य स्वर का सादृश्य या पर्याय का प्रभाव कारणरूप होता है। 445 वे सूत्र में हेमचन्द्र ने लिंगपरिवर्तन का उल्लेख किया । है। वहाँ पुंल्लिंग का नपु. ('कुंभइँ'), नपु. का पुंल्लिंग ('अब्भा लग्गा'), नपु. का स्त्रीलिंग ('अंबडी') और स्त्रीलिंग का नपु. ('डालइँ')-आदि उदाहरण दिये गये हैं । 'तेवढउँ' (371), 'खलाइँ' (334) में पुंल्लिंग के स्थान पर नपुंसकलिंग, 'सोएवा', 'जग्गेवा', 'वारिआर (438.3) में, तथा 'फल', 'लिहिआ' (335), 'नयण' (422-6), 'वड्डा' (364) आदि में नपु. के स्थान पर पुंल्लिंग रूप है । 'झुणि' (432) अंत्य स्वर के कारण स्त्रीलिंग हुआ हैं । हिन्दी में पुंल्लिंग-नपुंसकलिंग का भेद लुप्त हो गया है । और हिन्दी तथा गुजराती के अनेक तद्भवों के लिंग मूल संस्कृत से भिन्न है। आगे चलकर स्त्रीलिंग लघुता का वाचक बन गया है । उसका आरंभ अंबडी' ( = छोटी आंत) जैसों में देखा जा सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001465
Book TitleApbhramsa Vyakarana Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages262
LanguageApbhramsa, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size12 MB
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