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( xxxvi )
5. 'तू' का 'दू' (या 'दू' यथावत् ) - यह घोषभाव के चलन का ही एक और रूप है । उदाहरण : गद, आगद, किद, सुकृद, सुकिद, कृदंत, कविद, ठिद, विहिद, विणिभ्मविद ( इन सबमें भूतकृदंत का 'इद' 'इत' प्रत्यय), कीलदि, जोऐदि, प्रदि ( वर्तमान तृ. पु. एक व. का 'दि' < 'ति' प्रत्यय), तिदस, मदि, रदि ।
सूत्र 396 घोषभाव विषयक है | यह चलन प्राचीनता का द्योतक है ।
6. 'म्' का 'वँ' (या 'व') उदाहरण : जाव, तावँ, (जाउ, ताउ ) अव (अवँइ, अवहि ), केवँ, जिवँ, तिवँ); प्राइँव, पग्गिवँ (लिखित रूप 'प्राइम्व', 'पणिभ्व'); नव, नाउँ, ठाउँ, कवल, भवर, पवण, सावल, नीसावण्ण, रवण्ण ।
सूत्र 397 इस चलन से सम्बन्धित है । अपभ्रंश में यह एक प्रादेशिक चलन था ।
7. वकार का लोप । उदाहरण : ( अंगगत) दिअह, निअत्त, पइस, पइट्ठ, पयट्ट, परिअत्त, पिआस, बइठ, रूअ, लायण्ण, लोअडी, साहु, सुइण; ( प्रत्यय के पहले) आइअ, जीउ, तउ, पहाउ, जाउँ, ताउँ, नाउँ, ठाउँ ।
अपभ्रंश में यह चलन प्रादेशिक था ।
8. 'स' का 'ह.' । इसके उदाहरण ऊपर 'ध्वनि - विकास' में 7 ( 11 ) में दिये गये हैं ।
9. संयुक्त व्यंजनों का एकत्व ।
केवड, जेवड, तेवड; एत्तुल, आद्य अक्षर के बाद - अनु, कटरि, पु. षष्ठी एक व. का 'स' प्रत्यय,
पूर्वस्व र दीर्घत्व के बिना : उपांत्य अक्षर के बाद - नवखी (प्रत्यय में), एवड, केतुल, तेत्तुल : बप्पीकी, करत (छन्दोमूलक ?) कटारय, कणिआर, पठाव, लेखडय । अकारांत भविष्य का 'इह' प्रत्यय
पूर्वस्वर दीर्घत्व के साथ : नीसावण्ण; आकारांत पु षष्ठी एकवचन का 'आसु' प्रत्यय, भविष्य का 'इस' प्रत्यय; 'साव' ।
अपभ्रंश का यह चलन आधुनिकता का द्योतक था ।
छन्दविषयक परिवर्तन
अद्धिन्न, विन्नासिअ प्फल, उद्धग्भुअ; कि, कराँत, तँ पर) आदि के प्रयोग छन्दोमूलक हैं । टिप्पणी में कुछेक ओर ध्यान आकृष्ट किया है ।
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कँइ (काइँ के स्थान स्थानों पर इस बात की
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