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________________ (xxxv) 13. व्यंजनलोप के कारण पास-पास रहे हुए समान स्वर मिलकर एक दीर्घ स्वर होता है । 14. 'अय'>'ए', 'अव'>'ओ' ! अन्य स्थान पर भी परवर्ती 'य', 'व' > 'ई', 'उ' । ___15. सारूप्य के उपर्युक्त नियमों के अनुसार निष्पन्न होते संयुक्त व्यंजनों में से शब्दारंभ में केवल परवर्ती व्यंजन ही यथावत् रहते हैं। इनके अपवाद 8 वे नियम में दिये गये हैं। ___अपभ्रंश के कुछ लाक्षणिक ध्वनि-परिवर्तन के झुकाव 1. 'अ' का 'अ' या 'इ' और 'ओ' को 'आँ' या 'उ'-अपभ्रंश में यह अंत्य स्वर के ह्रस्व उच्चारण के रवैया की ही एक प्रवणता है) उदाहरण : अकारांत पु. तृ. ए. व. के 'ऍण', 'इण', 'इ' प्रत्यय तथा बहुवचन के 'एहि 'इहि' प्रत्यय; सप्तमी एक व. का 'इ', स्त्रीलिंग तृ. एक. व. का 'इ' तथा संबोधन एक. व. का 'इ', सर्वनाम के पु. प्रथमा बहु. व. का 'ऍ', (जे, ते, अन्ने या 'इ' (अइ, ओइ); आज्ञार्थ द्वितीय पु. एक. व. का 'इ'; किव, जिव, तिव । पु. प्र. द्वि. एक. व. का 'उ' : षष्ठी एक व. का 'हु'; स्त्रीलिंग प्र. द्वि. बहु व. का 'ओ', 'उ' ।। 2. ऋकार यथावत् (उच्चारण में 'र'). उदाहरण : कृदंत, गृह (चार बार) गृह. , घृण, तृण, सुकृद । सूत्र 394 खास 'गृह ' के लिये है । 3. रकार यथावत् । उदाहरण : अंत्र, द्रम्म, द्रवक्क, द्रह, देहि, ध्रुव, प्रंगण, प्रमाणिअ, प्रयावदी, प्रस्स , प्रावि, प्राइम्ब, प्राउ, प्रिअ, ब्रुव, ब्रो, भंती, भ्रंत्रि, व्रत । मत्र 391. 393, 398, 414, 418, रकार यथावत् सुरक्षित रखनेवाले शब्दों का विधान करते हैं । प्राकृत में भी 'द्र' संयोग यथावत् रखने का प्रादेशिक झुकाव था । 4. रकार का प्रक्षेप । उदाहरण : तुध्र (दो बार), त्र, ध्रु. (?) भंत्रि, बास, (तुलनीय क्रमदीश्वर में 'भ्रास' < 'भाष्य')। सूत्र 399 रकार-प्रक्षेप विषयक है । केवल 'बुञ ' (392) में 'अ ' है । उपर्युक्त 2 से 4 तक का चलन अपभ्रंश में प्रादेशिकता तथा प्राचीनता का द्योतक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001465
Book TitleApbhramsa Vyakarana Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages262
LanguageApbhramsa, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size12 MB
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