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'' > 'ह'। यह परिवर्तन अपभ्रंश में विशेष रूप से होता रहा है । 'दिअह' (दिवस) 'पाहाण' (पाषाण), 'साह' (शास् ), लूह (लूष ) आदि तथा हकारवाले विभक्ति प्रत्यय तथा आख्यातिक प्रत्यय इसके उदाहरण हैं । (12) क्वचित (सकार के सान्निध्य में विशेष) अल्पप्राण का महाप्राण होता है । (13) क्वचित् ('र', 'ऋ' के सान्निध्य में विशेष) दंत्य का मूर्धन्य होता है । क्वचित् 'इ', 'र' का 'लू' होता है । (15) क्वचित् इकहरा व्यंजन दोहरा होता है ।।
8. अपनश में क्वचित् आद्य या मध्यवर्ती इकहरे 'द्', 'व' आदि में रकार का प्रक्षेप होता है । प्राकृत में 'ह', 'ल्ह' और क्वचित् परवर्ती रकार वाले संयुक्त व्यंजनों को छोड़ दें तो अन्य कोई संयुक्त व्यंजन शब्दारंभ में प्रयुक्त नहीं होते ।
9. संयुक्त मध्यवर्ती व्यंजन या तो सारूप्य (समान रूप) प्राप्त करते हैं या स्वरागम होने पर विश्लेष प्राप्त करते हैं ।
10. व्यंजन-सारूप्य के नियम निम्न अनुसार है । (5) 'ज्ञ'>'न्न्' या 'ज' । (6) दंत्य + 'य' या 'व'> तालव्य । (7) क्वचित् परवर्ती इकारवाले संयुक्त व्यंजनों को यथावत् रखनेका प्रादेशिक रवैया अपभ्रंश में था। (8) दंत्य + इकार > मूर्धन्य (क्वचित्) (9) 'रस', 'प्स'>'च्छ्' । (10) 'क्ष'> 'क्व' 'च्छ' या 'ज्झ' (11) ऊष्म व्यंजन + स्पर्श > अल्पप्राण + महाप्राण । (12) ऊम्म व्यंजन + अननासिक व्यंजन > अनुनासिक व्यंजन + 'ह.' । (13) 'ह'+ अनुनासिक व्यंजन >अनुनासिक व्यंजन + 'ह', परंतु क्वचित् अनुनासिक व्यंजन + उसी वर्ग का घोष महाप्राण । (14) 'प्य', 'य.'> 'ज्ज.' (15) 'य'>'ज झ', 'हव'>'भ' ! (16) उपर्युक्त नियमानुसार निष्पन्न होते संयुक्त व्यंजन के स्थान पर-विशेषतः मूल के व्यंजनों में का एक रकार या ऊष्म व्यंजन हों तब< <अनुस्वार + इकहरा व्यंजन>>होने का रवैया ।।
11. (1) ऊष्म व्यंजन + अनुनासिक व्यंजन, या 'य' 'र', 'लू', 'व'; (2) र कार + ऊष्म व्यंजन या 'य', 'व', 'ह', (3) 'व' +'य'; (4) स्पर्श+ अनुनासिक व्यंजन, या 'र' (5) दंत्य + वकार-इन संयोगों का स्वरप्रक्षेप से विश्लेष (विभाजन) होता है । प्रक्षिप्त स्वर 'इ' या 'अ' अथवा (ओष्ठय संदर्भ में) 'उ' होता है ।
12. दोहरा 'स' (= 'स्स.') और 'व' ( = 'व') कभी कभी इकहरा बनता है और तब पूर्ववर्ती ह्रस्व स्वर दीर्घ होता है ।
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