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________________ (xxiv ) ८ (31) " अब्धिमंथन " जैसे अपभ्रंश भाषा में गुम्फित संधिबंधयुक्त महाकाव्य हैं तो " भीमकान्य" आदि ग्राम्य अपभ्रंश भाषा में गुम्फित अवस्कन्धकबंधवाले महाकाव्य हैं ।' (हेमचन्द्र ) | अपभ्रंश के स्वरूप की विचारणा । जब भी कोई संज्ञा शताब्दिओं के प्रयुक्त होती रहती है तब उसके अर्थ में समय-समय पर परिवर्तन होता रहता है और यह स्वाभाविक भी है। 'प्राकृत' अर्थात् (1) साहित्य और शिष्ट व्यवहार की संस्कृत भाषा से स्पष्टतः भिन्न दिखाई देती जनसाधारण की भाषा, ( 2 ) महाराष्ट्री प्राकृत, ( 3 ) महाराष्ट्री, शैरसेनी और मागधी-ये भाषायें, (4) महाराष्ट्री, शैरसेनी, मागधी, अर्धमागधी, पैशाची और अपभ्रंश ये भाषायें, (5) एक ओर संस्कृत और दूसरी ओर गुजराती, हिन्दी आदि उत्तरभारतीय भाषाओं के बीच की भाषायें, ( 6 ) लोकमाषा गुजराती, अवधी, ब्रन आदि । इसके अलावा भी दो तीन अर्थ दिये जा सकते हैं । 'अपभ्रंश' गंज्ञा का भी ऐसा ही है । जो लोग ये मानते हैं कि ईसा पूर्व की दूसरी से लेकर ईसा की बोसों शताब्दी तक 'अपभ्रंश' शब्द का प्रयोग एक ही अर्थ में हुआ है वे रोग उलझनों का शिकार होंगे । वास्तव में ऐसी उलझनें हुई भी हैं | आधुनिक युग के कुछ विद्वानों ने अपभ्रंश विषयक प्राचीन विद्वानों के समय-समय पर और अचा अलग संदर्भ में किये गये विधानों को उस शब्द के अमुक नियत अर्थ के साथ जोड़कर पहले से ही अपभ्रंश के बारे में भ्रमपूर्ण मत बना फलस्वरूप उन्हें कुछ आधारभूत सामग्री को इन मतों के बिठाना पड़ा है । लिये हैं और इनके चौकठे में ठोकपीट कर उपर 'अपभ्रंश' के अर्थ विषयक उद्धरणों से यह देखा जा सकता है कि 'अपभ्रंश' का साधारण यौगिक अर्थ है, 'इष्ट या मान्य स्थान से, स्तर से च्युत होना, नीचे गिरना ।' लाक्षणिक अर्थ में यह पतन अर्थात् 'स्खलन', 'भ्रष्टता', 'विकृति'. फिर यह आचारविचार के प्रदेश में हो या भाषाव्यवहार के प्रदेश में । हमारे 1. नमी अर्थ में 'अपभ्रंश' संज्ञा का प्रयोग होता रहा है । शब्द और अपअथवा व्याकरण शुद्ध शिष्ट शब्द और असाधु अथवा अशुद्ध अ-शिष्ट शब्द विषयक चर्चा में पतंजलि के समय से भी पहले शिष्ट, संस्कारी वर्ग के 'संस्कृत' के विरोध में जनसमूह की संस्कारहीन भाषा अर्थात् 'प्राकृत' और उसके .. Jain Education International S For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001465
Book TitleApbhramsa Vyakarana Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages262
LanguageApbhramsa, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size12 MB
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