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( xxv)
'भ्रष्ट', 'ग्राम्य' प्रयोग अपभ्रंश कहे जाते थे । और आगे चलकर समय समय पर लोकभाषा का स्वरूप बदलता रहा और उसके अनुसार 'अपभ्रंश' एक सामान्य संज्ञा के रूप में भिन्न भिन्न बोलिमों से जुड़ती गयी । प्राकृते, प्राकृत का शिष्ट रूप या रूपविशेष, मध्यकालीन देशभाषायें और आधुनिक मैथिली, गुजराती आदि भाषः ये समयभेद से या संदर्भभेद से 'भाषा', 'प्राकृत', 'अपभ्रंश' और 'अपभ्रष्ट' ऐसे नाम-निर्देश प्राप्त करती रही है । इसके अलावा 'देशी' और 'सामान्य भाषा ऐसी संज्ञाये भी दसवीं शताब्दी पहले लोकबोलो के लिये प्रयुक्त होती थी ।
आरंभ में संस्कृत के विरोध में ग्राम्य, अ-शिष्ट मानी जाती प्राकृत बोलियों के लिये 'अपभ्रंश' शब्द का प्रयोग होता था परंतु आगे चलकर साहित्यिक वाकलें अधिक से अधिक रूढ स्वरूप प्राप्त करने पर व्यवहार की बोली से हटने लगी । और इसी दौर में 'अपभ्रंश' संज्ञा सामान्य से विशेष संज्ञा बनी। किसी भी 'नाम्य' 'विकृत' भाषा के लिये नहीं, भाषाविशेष के लिये 'अपभ्रंश' शब्द का प्रयोग होने लगा। भामह (ईसा को छठी शताब्दी) तथा दंडो ( ईसा की सातवीं शता) तथा दंडी ( ईसा की सातवीं शताब्दी) साहित्य की तीन भाषाओं के रूप में संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के नाम देते हैं। लातवीं शताब्दी के आसरात रे, एक ताम्रपत्र में, बलभीराज गुहसेन संस्कृत, मत और अपभ्रंश-तीनों में गुम्फित साहित्य-प्रबंध रचने में निपुण था ऐसा धरसेन (द्वितीय) के नाम से उल्लेख हे । इन उल्लेखों में अपभ्रंश का एक विशेष्ट साहित्यभाषा के रूप में निर्देश मिलता है । आगे चलकर उद्दोजन (आठवीं शताब्दी), स्वयंभू (नवीं बालान्दी), पुष्पदंत (दसवीं शताब्दी) आदि अनेक अपभ्रश कवि, राजशेखर (नवीं शताब्द, हेमचन्द्र तथा अन्य कई विद्वान अपभ्रंश को एक साहित्यभाषा के रूप में मामले थे यह हम उनके ज्ञल्लेख, व्यवहार और निरूपण द्वारा जानते हैं | तो दूसरी ओर रुद्रह (नवमी शताब्दी), नमिसावु (ग्यारहवीं शताब्दी) तथा पुरुषोत्तम (11 वीं-12 वीं मानाया, रामशर्मा और मार्कडे, जैसे पाकृत व्याकरणकार अपभ्रंश एक नहीं, परंतु अनेक हत की बात करते है। तो फरारभ्रंश की एकता और अनेकता विषयक निर्देशों और प्रमाणों की इन असंगतियों को स्पष्टता क्या और कैसे होगी ?
इनमें एक बात तो स्वयं स्पष्ट है कि साहित्यशास्त्रो और व्याकरणकार अपभ्रंश की बात करने को इसलिये बाध्य है चूंकि वह साहित्य में प्रयुक्त होती है । जनसाधारण के केवल बोलचाल में ही प्रयुक्त बोलियों से उन्हे कुछ सरोकार नहीं था। प्राचीन समय में संस्कृत जानता शिष्टजन राजसभा में या विदग्धगोष्टि में काले रस
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