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________________ ( xxii) (12) 'अपभ्रष्टशब्दप्रकाश' ( = 1880 में प्रकाशित, प्रभाकर रामचन्द्र पंडितकृत गुजराती के व्युपत्तिदर्शक कोश का नाम) । (13) 'इनमें छठा जो देशविशेष के अनुसार अनेक भेदों से युक्त अपभ्रंश' (रुद्रट, नवीं शताब्दी) । (14) 'यह तथा देशबोली प्रायः अपभ्रंश के अंतर्गत आती हैं ।' (गमचन्द्र, बारहवीं शताब्दी)।) (15) 'गीत द्विविध कहा जाता है, संस्कृत तथा प्राकृत । हे नरपति, तीसरा अपभ्रष्ट है, जो अनंत है, देशभाषा के अनुसार इसका यहाँ कोई अंत नहीं ।' (विष्णुधर्मोत्तर) । 4. इस नाम की एक साहित्य-भाषा : (16) (काव्य के) संस्कृत, प्राकृत और इसके अतिरिक्त अपभ्रंश-यों तीन प्रकार हैं ।' (भामह, करीब छठा शताब्दी)। (17) इस प्रकार आर्यो ने इस विशाल वाङ्मय को संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और मिश्र-यों चार प्रकार का कहा है । आभीर आदि की भाषाओं को काव्य में अपभ्रंश कहने की रूढि हे परंतु शास्त्र में संस्कृत से जो भिन्न है उसे अपभ्रश कहा जाता है । (दण्डो, करीब सातवीं शताब्दी)। (18) 'संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश इन तीनों भाषाओं में निबद्ध ऐसे प्रबंधों की रचना में जिसका अंतःकरण निपुणतर था।' (वलभी के धरसेन द्वितीय का जाली दानपत्र, करीब सातवीं शताब्दी) । (19) (संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के उल्लेखों के बाद)-'अरे एक चौथी भाषा पैशाची भी है । तो यह वही होगी । (उद्योतनसूरि, ईसवीसन् 778). (20) (हे काव्यपुरुष), शब्दार्थ तुम्हारा शरीर है, संस्कृत मुख, प्राकृत बाहु, अपभ्रंश जघन, पैशाच चरण, मिश्र वक्षःस्थल' (राजशेखर, नवीं शताब्दी) । (21) 'महाकाव्य, पद्यात्मक और प्रायः संस्कृत प्राकृत, अपभ्रंश और ग्राम्य भाषा निबद्ध ...(हेमचंद्र, बारहवीं शताब्दी ।) (22) 'अवहट्ठय ( = अपभ्रष्टक), संस्कृत, प्राकृत और पैशाचिक भाषा में जिन्होंने लक्षण और छन्दों के अलंकार द्वारा सुकवित्वको विभूषित किया (अब्दल रहमान, करीब तेरहवीं शताब्दी) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001465
Book TitleApbhramsa Vyakarana Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages262
LanguageApbhramsa, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size12 MB
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