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(5) (शुद्ध शब्द) जिसकी प्रकृति न हो ऐसा कोई स्वतंत्र अपभ्रंश (अपभ्रष्ट) शब्द नहीं है । सारे अभ्रंश की प्रकृति साधु शब्द होते हैं । परंतु प्रसिद्धि के कारण रूढ बने हुए कुछ अपभ्रंश स्वतंत्र प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं । अतः 'गौः प्रयोग जहाँ करना होता है वहाँ अशक्ति या प्रमाद के कारण उसका 'गावी' आदि अपभ्रंश पयुक्त होते हैं । (भर्तृहरि) ।
3. भ्रष्ट, विकृत- बोली या भाषा-उभ उस समय की देशभाषा । (इस अर्थ में 'अपभ्रष्ट'--'अवहट्ठ' भी प्रयुक्त हुआ है) :
(6) 'शास्त्रो में संस्कृत से जो भिन्न है उसे अपभ्रंश कहा गया है ।' (दंडी).
(7) 'भाषा' अर्थात् संस्कृत का अपभ्रंश; भाषा का अपभ्रंश अर्थात् 'विभाषा ।' यह उन उन देश को गहबरवासिओं की तथा प्राकृत जनों की......(अभिनवगुप्त)। 'परंतु अपभ्रंश का क्या नियम है ?' इसके उत्तर में कहते हैं,...(प्राकृत पाठ का विवरण करते हुए अभिनवगुप्त) ।
(8) 'और तीसरा अपभ्रष्ट । हे राजा, देशभाषा ले भेदों के अनुसार यह अनंत है ।' ('विष्णुधर्मोत्तर')।
(9) "उन जन देशों में जो शुद्ध बोला जाये वह अपभ्रंश (वाग्भट्ट, 11वीं शताब्दा)। उन देशों में अर्थात् कर्णाट, पांचाल आदि में शुद्ध अर्थात् अन्य भाषा के मिश्रण के दिना जो बोला जाये वह अपभ्रंश है-रेसा अर्थ है । (सिंहदेवगणि)।
(10) 'देशी वचन सब लोगों को मोठे लगते हैं, अतः उसे वहट्ठ मैं कहता हूं।' (मैथिल कार विद्यापति, 14 वीं शताब्दी का अंभाग) ।
i) ककमत्र ए नइषधरानी अपभ्रंश ए दाखी' (भालगा, सोलहवीं शताब्दी का आरंभ)
1. इसके साथ पद्मनाम (ईसन् 1456), भाला, अखो, प्रेमानन्द शामल आदि गुजराती
काय 'प्राकृत', 'गुर्जरभाषा', 'गुजराती भाषा' ऐसी संज्ञाओं का भा गुजराती के लिये प्रयोग करते है । 'सरस अन्ध-प्राकृत कव' कान्हडदे प्रबन्ध, 1-1) :
कितबन्ध के बेतमानि करो' (का. प्र. 4/352); 'गुजरभाषाना नलसाजाए गुग मनोहः गाउ' ('नलाख्यान,' 1-1); 'संस्कृत वोल्ये शु थयु, काई प्राकृतमाथी नाशी गयु ? ( 'अखाना छप्पा,' 247). 'बाँधु नागदमन गुजराती भाषा' ('दशमस्कंधे', 16-54); "संवाद शुकपरिक्षतराजाना, कहु प्राकृत पदबन्ध' ('दशमस्कंध', 1-7) 'मोहनजीसुत रखीदास कहे : प्राकृताए पुरपणी करो' (सिंहासनबत्रीसी,' वहाणनी वार्ता, ८) ।
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