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________________ (xviii) सहज अधिकार का अनुभव होता है । विरहिणी का पति भी असे हुए व्यापार के लिये खंभातनगर गया था । अतः वह पथिक को अपना संदेश उसे पहूँचाने की बिनती करती है । पथिक की सहृदयता देखकर विरहिणी उसे संदेशा कहती है । इसमें स्थूल सामग्री के रूप में विरह के कारण अपनी करुण, दुःग्वी, दयनीय अवस्था का वर्णन, इतना समय बीत जाने के बावजूद न लौटने पर उपालंभ, विरह के तीव्र दाह और मिलनाशा के अमृत का बारीबारी से अनुभव लेते अपने हृदय की त्रिकुवत् स्थिति और इन सब के कारण दुःल्ह्य बना जीवन आदि है । परंतु विशेष अपूर्वता तो उसकी अभिव्यक्ति-रीति में ही हैं । भिन्न-भिन्न भावानुक्ल छन्दों का आश्रय लेकर, पहले दो-चार बातें कहती है, फिर दो-चार बातें कहती हैं, इतने में पथिक का हृदय सहृदयता के कारण भीग उठता और वह निसंकोच जी चाहा कह देने को आग्रह करता है : यों उपर्युक्त सामान्य सामग्री अनेक रम्य भंगिमाओं के सिंगार सज कर काव्य-रस का वाहक बनती है। फिर देर हो जाने के भय से पथिक जाने की अनुमति चाहता है । सो सुंदरी अंतिम दोचार शब्द सुन लेने को कहती है । इस तरह काव्य आधे तक पहुँचता है । इस दारान पथिक के हृदय में समभाव से कुतूहल जागता है और वह विरहिणी से पूछता है कि कितने समय से तुम ऐसी दीन दशा भोग रही हो ? और इस तरह कई दिनों से दिल में छिपाये हुए दुःखद भावों को एक सहृदय व्यक्ति के पास व्यक्त करने का मौका मिलने पर रमणी अपनी कहानी शुरु करती है । यहाँ काव्य का दूसरा खण्ड पूरा होता है। आरंभ का अंश यदि छोड़ दे तो यह खण्ड स्वतः पूर्ण रूप से वियोगि के आतं, करुणार्द्र सूर बहाते विलापगीतों की माला जैसा है। तीसरे खण्ड में षड्ऋतुओं का मनोरम और आबेहब वर्णन है । पति जब परदेश गया तब कैसा ग्रीष्म तप रहा था से लेकर एक के बाद एक ऋतु और उस समय की अपनी दशा-इस प्रकार वर्णन करते हुए अंततः वसंत का वर्णन करके विरहिणी अटकती है । अंत में पथिक को विदा देकर जैसे ही वह लौटती है तो सामने दक्षिण दिशा में निगाह पड़ते ही, दूर रास्ते पर परदेश से लौटे हुए अपने पति को देखती है | इसके साथ ही कवि 'निस प्रकार उस विरहिणी का कार्य अचानक ही सिद्ध हुआ वैसे ही श्रोताओं और पाठकों का भी सिद्ध हो' ऐसी प्रार्थना करके अनादि-अनंत का जयजयकार करते हुए काव्य को समाप्त करता है । स्वरूप अब इस काव्य-स्लरूप को जिस साँचे में ढाला गया है वह देखे । सब से पहले तो यही बात कि रचना का शीर्षक ही काव्य के प्रकार को सूचित कर देता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001465
Book TitleApbhramsa Vyakarana Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages262
LanguageApbhramsa, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size12 MB
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