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है । पुरानी गुजराती और हिन्दी दोनों में कई रासाकाव्य प्रसिद्ध है । अपभ्रंश में ऐसा ही 'उपदेशरासायणरास' नामक ग्रन्थ मिलता है परंतु स्वरूप और संविधान की दृष्टि से यह पहला प्रसिद्ध अपभ्रंश रासा है जो सबसे अलग है । कविने काव्य को विषयानुसार तीन भागों में बाँट दिया है । हर विभाग को 'प्रक्रम' ऐसा नाम दिया है । पहले 'प्रक्रम' में प्रास्ताविक बाते दी गयी है । अतः उसकी भाषा प्राकृत है, अपभ्रंश नहीं । काव्य में बीच-बीच में जहाँ भी गाथा है वहाँ वहाँ प्राकृत का ही उपयोग किया गया है और जो दो-चार वर्णवृत्त प्रयुक्त हुए हैं उनकी भाषा भी प्राकृत-प्रचुर है । विरहांक के 'वृत्तजाति-समुच्चय' या स्वयंभू के 'स्वयंभूच्छन्द' जैसे छन्द-ग्रंथोंने रासा का लक्षण निर्धारित करते हुए कहा है कि रासाबंध की रचना अडिज्ला, रासा, चौपाई, दोहा आदि छन्दों में की जाती है । यह परिभाषा 'संदेशराशक' पर ठीक-ठीक लागू होती है । और फिर 'संदेशरासक' में भी रासक का लक्षण देते हुए कहा गया है कि जो बहु रूपकों में (= छन्दों में) निबद्ध होता है ।
काव्य की भाषा अपभ्रश तो है परंतु वह लौकिक बोलियों से दूर तक प्रभावित उत्तरकालीन अपभ्रंश है । इसमें हेमचन्द्र की शिष्टमान्य अपभ्रंश के लक्षणों के साथ साथ ऐसी भी कुछ विशिष्टतायें हैं जो किसी एक प्रांतीय भाषा की निजी नहीं परंतु सभी उत्तरकालीन अपभ्रंशभेदों के बीच समान रूप से मिलती है। इसके अलावा 'संदेशरासक' की भाषा में कुछ शब्द और रूप ऐसे हैं जैसे कि सनेहय' 'निवेहिय' जिनमें 'सू का 'ह', 'संनेय' में 'न्द' का 'न' 'चंबा' में 'म्प' का 'ब' ऐसे शब्द पंजाबी बोली की विशिष्टता है। अतः इसे पंजाबी और प्राचीन तुज गोजर से मिश्रित उत्तरकालीन अपभ्रंश कहा जा सकता है ।
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