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करते हैं । इसी प्रकार काव्य की अंतिम पंक्ति में 'जिसका न आदि है न अंत' ऐसे परमेश्वर का जयजयकार किया है । परंतु यदि पहले से पता हो कि यह एक मुसलमान कवि की रचना है तभी कान्य के इस प्रकार के आदि और अंत सूचक लगेंगे । काग्यविषय का जिस प्रकार निरूपण किया गया है, अनेक स्थानों पर जिन हृद्य और सुभग अलंकारों का विनियोग किया गया है, जिस प्रकार विरहिणी की करुण अवस्था का हृदयद्रावक चित्र प्रस्तुत किया गया है तथा समग्र काव्य में भाषा
और छन्द विषयक जो सहज अधिकार प्रकट होता है-यह सब बड़ी गहरी छाप छोड़ जाते है । लाता है कविने संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश के विशेषकर शंगारिक माहित्य का आकंठ पान किया होगा । 'गाथासप्तशती', 'वज्जालग्ग', 'लीलावई' जैसे प्राकृत गाया-संग्रह या काव्यों की कुछ गाथाओं के अपभ्रंश अनुवाद या प्रतिध्वनियाँ भी उपर्युक्त बात का समर्थन करती हैं ।
वस्तु 'संदेशरासक' को तीसरी विशेषता उसके स्वरूप में निहित है । इस विशेषता को देखने से पहले एक निगाह काव्य की वस्तु को देख ले । रचना के शीर्षक से ही समझा जा सकता है कि यह एक विरह-प्राणित संदेशकाव्य है । परंतु 'मेघदूत' की रचना के बाद उसका अनुकरण करते हुए कई सामान्य या निम्न कक्षा के दूतकाव्य कुकुरमुत्ते की तरह जो पैदा हुए, उनके और संदेशराशक' के बीच जमीन-आसमान का फर्क है । काव्य के आरंभ में कविने आत्मपरिचय दिया है ।
और पूर्वपरिचित रोचक निदर्शन की पूरी शृखला द्वारा यह व्यक्त किया है कि उसके पूर्वसूरिओं में कईओं की उत्कृष्ट काव्य-कृतिओं को सच्चा ध्रुवपद मिला है फिर भी अपने जैसे एक अत्यंत निरीह जन के ऐसे नम्र प्रयत्न को रसिक-दिलों को रिझाने का कुछ अधिकार और अवकाश है । काव्य के इस प्रवेशक-खण्ड के बाद मूल कथावस्तु का आरंभ होता है ।
रजपूताने के किसी इलाके के विजयनगर में रहती कोई पोषितभर्तृका उस मार्ग से गुजरले पथिक को देखकर कुछ पूछताछ करती है । पथिक किसीका संदेशवाहक बनकर मूलतान से खंभात नगर जा रहा था । पथिक मूलतान की समृद्धि का बहुत हृदयंगम वर्णन करता है । यहाँ तथा अन्य स्थानों पर कहीं थी आयास प्रतीत नहीं होता । भाषा, छन्द, अलंकार और वक्तव्य की अनेकविध ललित भंगिमा पर कवि के
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