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(xvi)
संदेशरासक अब तक, उपलब्ध अन्य अपभ्रंश साहित्य को रचनाओं में 'संदेशरासक' अपनी: कुछेक अपूर्व विशेषताओं के कारण अपना निजी पहचान बनाये हुए है । यूँ काव्य तो केवल सवा दो सौ पद्यों का है फिर भी अपनी विशिष्टताओं के कारण वह काफी महत्त्वपूर्ण है । प्रथम तो शुद्ध साहित्य की दृष्टि से 'संदेशरासक' एक मूल्यवान कृति है । अब तक प्रकाशित प्रशिष्ट अपभ्रंश की रचनाओं में से एक भी ऐसी नहीं है कि जिसे नितांत शुद्ध साहित्य-रचना कहा जा सके । अब तक अपभ्रंश में धर्मकथाये, चरित, पुराण आदि की बोधप्रद या धार्मिक रचनाये ही मिलती रही है। स्वयंभू या हेमचन्द्र द्वारा उद्धृत अपभ्रंश-उदाहरणों पर से यदि अनुमान - किया जाये तो इस में कोई सदेह नहीं कि प्राकृत के बाद अपभ्रंश ने शृगार और वीररस के साहित्य तथा सुभाषितों की रचनापरंपरा आगे बढ़ायी थी। परंतु अब तक तो इन फुटकल कहने के लायक पद्यों के सिवा श्रृंगाररस या इतर प्रकार की शुद्ध ललित वाङमय की कही जा सकेगी ऐसी एक भी अपभ्रंश रचना हाथ लगी नहीं थी । 'संदेशरासक' इस प्रकार की पहली रचना है । इसके निर्माण का प्रमुख प्रवृत्तिनिमित्त रसानंद ही है । सोधे उपदेश नहीं, कांतासंमित उपदेश भी नहीं परंतु पाठक और श्रोता को सद्य और परम ऐसी निवृत्ति का लाभ मिले यही इस 'संदेशरासक' रचना का प्रयोजन । कवि ने प्रस्तावना में ही कहा है कि उसका यह काव्य, रसिकों के लिये रससंजीवनीरूप और अनुरागी के लिये पथदीपरूप है।
कर्ता
'संदेशरासक' की दूसरी विशिष्टता यह है कि उसका रचनाकार कवि मुसलमान - था । उसका नाम था अद्दहमाण या अन्दल रहमान । पश्चिमदेश में स्थित प्रसिद्ध म्लेच्छदेश के निवासी मीरसेन नामक किसी बुनकर का वह पुत्र था । वह यह भी कहता है कि उसने प्राकृत काव्य और गीतों की रचना में प्रसिद्धि पायी थी । पूरे काव्य में कहीं भी हल्का-सा अंदेशा भी नहीं होता कि यह रचना एक विदेशीआर्येतर कवि की है । यही बात सिद्ध करती है कि संदेशरासककारने अत्रत्य काव्यरीति और संस्कृति को किस हद तक आत्मसात् किया था । यह सही है कि काव्य का मंगलाचरण और समापन खास विशेषता लिये हुए है। देखिये मंगलाचरण में ईष्टदेव का स्तवन : जिसने समुद्र, पृथ्वी, गिरि, वृक्ष, नक्षत्र आदि की सृष्टि की वह आपको कल्याण का दान करे', मनुष्य, देब, विद्याधर तथा सूर्यचन्द्र जिसको नमन :
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