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संख्या स्वल्प है । उदाहरणों की भाषा विविध प्रदेशों और कालखण्डों का प्रभाव लिये हुए है । विषय-वैविध्य, अनायास सिद्ध अलंकार, भावों की तीक्ष्णता और सरल पर तुरंत ही बेधनेवाली अभिव्यक्ति और अनुभूति को ठोस झंकार-इन गुणों के कारण हेमचन्द्रीय उदाहरण एक ताजगी और उष्मा से धड़कते साहित्य की ओर संकेत करते हैं ।
संधि तेरहवीं शताब्दी के आसपास छोटे अपभ्रंश काव्यों के लिये 'संधि' नामक (संधिबंध' से भिन्न) एक नया रचनाप्रकार विकसित होता है । इस में किसी धार्मिक, उपदेशात्मक या कथाप्रधान विषय का कुछ कडवकों में निरूपण किया जाता है और उसका मूल स्रोत कई बार आगम-साहित्य या भाषासाहित्य अथवा लो पूर्वयुगीन धर्मकथा-साहित्य में का कोई एक प्रसंग या उपदेशवचन होता है । उदाहरण हैं रत्नप्रभकृत 'अंतरंगसंधि' (ईसा की 13 वीं शताब्दी), जयदेवकृत 'भावनासंघि', जिनप्रभ (ईसा को 13 वीं शताब्दी) कृत 'चउरंगसंधि', 'मयणरेहासंधि' (ई. सन् 1241) तथा अन्य संधियाँ ।
तेरहवीं शताब्दी में और उसके बाद रचित कृतियों की उत्तरकालीन अपभ्रंश भाषा में तत्कालीन बोलियों का बढ़ता हुआ प्रभाव लक्षित होता है । इन बोलियों में भी कब से साहित्य-रचनायें होने लगी थी- हालाँकि प्रारंभ में यह अपभ्रंश साहित्यकारों और साहित्यप्रवाहों का विस्ताररूर था । बोलचाल की भाषा में यह प्रभाव कुछ हल्के-फुल्के रूप में तो ठेठ हेमचन्द्रीय अपभ्रंश उदाहरणों में भी है। इससे ऊलटे साहित्य में अपभ्रंश परंपरा पन्द्रहवीं शताब्दी तक जाती है और क्वचित् बाद में भी उसे जीवन्त देखा जा सकता है ।
वस्तुनिर्माण तथा क्षेत्र को सीमा के बावजूद नूतन साहित्यस्वरूप और छन्दस्वरूपों का सृजन, परंपरापुनित काव्यरीति का प्रभुत्व, वर्णननिपुणता और रसनिष्पत्ति को शक्ति---इन सबके द्वारा अपभ्रंश साहित्य में जो सामर्थ्य और सिद्धियाँ प्रकट होती है उसके कारण उसे भारतीय साहित्य के इतिहास में सहज ही ऊँचा
और गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त होता है । प्राचीन गुजराती, ब्रज, अवधी, महाराष्ट्री आदि के साहित्य, छन्द, काव्यरीति और साहित्यस्वरूप के संदर्भ में अपभ्रंश की ही परंपरा आगे बढ़ती है, अथवा तो उसमें से नयी दिशा में विकास होता हैं । इस दृष्टि से भी अपभ्रंश साहित्य का पद और महत्त्व निराला ही है ।
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