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________________ (xiv) शैली सरल, सरोक, लोकगम्य और अलंकार तथा पांडित्य के बोझ से मुक्त है। . इन्हें भारतीय अध्यात्म-रहस्यवादी साहित्य में जैन परंपरा का मूल्यवान प्रदान माना जा सकता है। ___ अपभ्रंश में जैनों की भाँति बौद्धों का अध्यात्म-रहस्यवादी साहित्य भी रचा • गया है । इनके रचयिता महायान संप्रदाय की वज्रयान तथा सहजयान शाखा के सिद्ध थे । इनमें से सरह तथा कान्ह के दोहाकोश (लगभग 10 वीं शताब्दी) व्यवस्थित रूप में मिलते हैं । कर्मकांड तथा बाह्याचार का विरोध, गुरु का महत्त्व, चित्तझुद्धि, शुन्यताप्राप्ति आदि विषयों पर सीधी, तीक्ष्ण देशज जोशभरी वाणी में रचित इन . रचनाओं में बाद के संतसाहित्य की रीति, भाषा और भावों के मूलस्रोत मिलेंगे । बौद्ध अपभ्रंश साहित्य को विरल उपलब्ध कृतियों के रूप में भी इनका मूल्य बहुत है । छोटी धार्मिक कृतियों में लक्ष्मीचन्द्रकृत 'सावयधम्मदोहा (सं. श्रावकधर्मदोहा) अपरनाम 'नवकार-श्रावकाचार' (16 वीं शताब्दी के पूर्व) उल्लेखनीय है । इसमें शीषर्क के अनुसार श्रावक का कर्तव्य लोकभोग्य शैली में बताया गया है । इसके अलावा 25 दोहे की महेश्वरकृत संयमविषयक 'संजनमंजरो' (संभवतः 11 वीं शताब्दी के आसपास) का, जिनदत्त (ई. सन् 1706-1752) कृत 'चर्चरी' और 'कालस्वरूपकुळक' का और धनपालकृत 'सत्यपुरमण्डनमहावीरोत्साह' (ईसाको 11वो शताब्दी), अभवदेवकृत 'जयतिहुअण' आदि स्तवनों का उल्लेख किया जा सकता है । प्रकीर्ण कृतियाँ और उत्तरयुगीन प्रवाह ___ स्वतंत्र कृतियों के अलावा जैन प्राकृत तथा संस्कृत ग्रंथों में और टीकासाहित्य में छोटे-बड़े कई अपभ्रंश पद्यखण्ड मिलते हैं । उदाहरण के रूप में कुछ के नाम : वर्धमानकृत 'ऋषभचरित' (ई. सन् 1104), देवचंद्रकृत 'शान्तिनाथचरित्र' (ई. सन् 1104, हेमचंद्रकृत 'सिद्धहेम' व्याकरण तथा 'कुमारपालचरित' अपरनाम 'द्वयाश्रय' (ईसाको 12 वीं शताब्दी), रत्नप्रभकृत 'उपदेशमालादोघट्टीवृत्ति' (ई. सन् 1182), सोमप्रभकृत 'कुमारपालपतिबोध' (ई. सन् 1185), हेमहंसशिष्यकृत 'संजममंजरीवृत्ति' (ईसा का 15 वीं शताब्दी से पहले) इत्यादि के अलावा अलंकार साहित्य में उद्धत पद्यों में जोकि जनेतर अपभ्रंश रचनाओं के सूचक हैं, उनका विशेष मुल्य है । इनमें से 'सिद्धहेम' के उदाहरण विशेष ध्यानार्ह हैं । हेमचन्द्रने इन पौने दो सौ जितने (मुख्यतः दोहाबद्ध) पद्यों में से अधिकांश उपलब्ध अपभ्रंश साहित्य में से या पहले के व्याकरणों में से इक्ट्ठे किये लगते हैं । कृत्रिम या गढ़े हुए उदाहरणों की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001465
Book TitleApbhramsa Vyakarana Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages262
LanguageApbhramsa, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size12 MB
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