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(xiii)
आधार पर किसी भी प्रकार खण्ड या विभाग न किये गये हों ऐसे कथाकाव्यों के एक दो उदाहरण हमे मिलते हैं । हरिभद्र के ई. सन् 1150 में पूर्ण हुए णेमिणाहचरिय' (सं. नेमिनाथचरित) का प्रमाण 8012 श्लोक का है और समग्र रचना. रडा नामक एक मिश्र छन्द में रची गयी है। हम 'स्वयंभूछन्द' में दिये गये उल्लेखों पर से अनुमान कर सकते हैं कि हरिभद्र के पहले-कम से कम तीन शताब्दी पहले हुए गोविंद नामक अपभ्रंश कवि ने भी रड्डाछन्द के विविध प्रकारों में एक कृष्णकाव्य रचा होगा । 'गउडवहो' जैसी प्राकृत रचनायें भी इसी ढाँचे की है ।
धार्मिक तथा आध्यात्मिक कृतियाँ अपभ्रंश में कथाकाव्यों की (और संभवतः भावप्रधान काव्यों की) विपुलता थी परंतु इसका मतलब यह नहीं कि इस में अन्य काव्यप्रकार बिलकुल ही नहीं थे। धर्म-बोधक विषय की छोटी-छोटी रचनाओं के अलावा कुछ अध्यात्म या योग. विषयक रचनाये भी मिलती हैं ।
इन में योगीन्दुदेव (अप. जोइंदु) का 'परमप्यपयास' (सं. परमात्मप्रकाश) और 'योगसार' सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं । 'परमप्पपयास' के दो अधिकारों में से पहले में 132 दोहे हैं, जिन में बाह्यात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा का मुक्त और सरल शैली में प्रतिपादन किया गया है । 214 पद्यों (प्रायः दोहे) का दूसरा अधिकार मोक्षतत्त्व और मोक्षसाधन विषयक है । योगीन्दु साधक योगी को आत्मसाक्षात्कार का सर्वोच्च महत्त्व समझाता है । और इसके लिये उपायों के रूप में विषयोपयोग के त्याग का, धर्म के केवल बाह्याचार नहीं परंतु उसके आंतरिक तत्व को धारण किये रहने का, आंतरिक शुद्धि का और आत्मा के सच्चे स्वरूप का भ्यान करने का उपदेश देता है । 'योगसार' में 108 पद्यों (प्रायः दोहे) में संसार भ्रमण से विरक्त मुमुक्षु को प्रबुद्ध करने के लिये उपदेश दिया गया है । स्वरूप शैली और सामग्री की दृष्टि से उसका ‘परमप्पपयास' के साथ काफी साम्य है।
वही शब्द रामसिंह कृत 'दोहापाहुड' (सं. दोहामाभृत) के लिये भी कहे जा सकते हैं । इसके 212 दोहाबहुल पद्यों में इसी आध्यात्मिक-नैतिक दृष्टि पर बल दिया गया है । इप्समें शरीर और आत्मा के तात्त्विक भेद का निरूपण करने के बाद परमात्मा के साथ आत्मा की अभेदानुभूति को साधक योगी का सर्वोच्च साध्य माना गया है। विचार में तथा परिभाषा में इन तीनों कृतियाँ का ब्राह्मण और बौद्ध परंपरा की अध्यात्मविषयक कुछ कृतियों के साथ उल्लेखनीय साम्य है । इनकी भाषा और
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