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________________ (xii) सकता है कि यह भावप्रधान काव्यप्रकार मध्यम आकार की (संस्कृत खंडकाव्य की याद दिलाती) रचना होगी । इस में काव्य के कलेवर के लिये प्रायः एक निश्चित परंपरागत मात्राछन्द का प्रयोग होता था और वैविध्य के लिये बीच-बीच में विभिन्न रुचिर छन्दों का प्रयोग होता था । हालाँकि रासाबध के प्रचार और लोकप्रियता के समर्थन में प्राचीनतम प्राकृत-अपभ्रंश के पिंगलकारों की रासक की व्याख्या हमें मिलती हैं परंतु आश्चर्य इस बात का है कि एक भी प्राचीन रासा का दृष्टांत तो क्या उसका नाम भी बचा नहीं है । (स्वयंभू तो रासा को पंडितगोष्ठियों में रसायण रूप 'कहकर' प्रशसा करता है)। आगे चलकर भी अपभ्रंश के इसमहत्त्वपूर्ण काव्यप्रकार विषयक हमारा अज्ञान कम करे ऐसी सामग्री स्वल्प है। लगातार और आमूलचूल बदलकर रासा आधुनिक भारतीय-आर्य साहित्य में उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक चलते रहे हैं । प्राचीन राजस्थानी साहित्य में बहुधा जैन लेखकों द्वारा रचित सेंकडों रासा मिलते हैं । परंतु अपभ्रंश में तेरहवीं शताब्दी के आसपास 'देशरासक' और करीब बारहवीं शताब्दी में साहित्यिक दृष्टि से मूल्यहीन एक उपदेशात्मक जैन रासा के सिवा और कुछ मिलता नहीं है । इसमें बाद की रचना 'उपदेशरसायनरास' अस्सी पद्यो में सद्गुरु और सद्धर्म की प्रशसा और कुगुरु तथा कुधर्म की निंदा करती है । यह रासककाव्य एक प्रतिनिधि रचना नहीं परंतु इस बात का उदाहरण मात्र है कि उत्तरकाल में इस लोकप्रिय साहित्यप्रकार का उपयोग धर्मप्रचार में होता था । किसी 'अंबादेवयरासय' का उल्लेख ग्यारहवीं शताब्दी की तथा 'माणिक्य-प्रस्तारिका-प्रतिबद्ध-रास' का उल्लेख बारहवीं शताब्दी की कृति में मिलता है। 'संदेशरासक' के विशिष्ट महत्त्व के कारण उसके बारे में विस्तृत जानकारी · परिशिष्ट में दी गयी है । लगता है कि वसंतोत्सव से जुड़ी चर्चरी नामक गेय रचनायें भी अपभ्रंश में लिखी गयी होगी । परंतु ग्यारहवीं शताब्दी की 'संतिनाहचच्चरी' के उल्लेख तथा तेरहवीं शताब्दी की एक बोधप्रधान जैन रचना के सिवा कुछ बचा नहीं है । खंडविभाजनरहित महाकाव्य विशिष्ट बंधवाले संधिकाज्य के अलावा अपभ्रंश में विभाग या खण्ड में विभाजित न हो ऐसे छन्दोबद्ध महाकाव्य भी रचे गये हैं। ऐसा नहीं है कि अपभ्रंश कथाकाव्य के लिये संधिव ही निश्चित था क्योंकि आदि से लेकर अंत तक निरसवाद रूप से एक ही छन्द का प्रयोग हुआ हो और संविधान या विषयादि के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001465
Book TitleApbhramsa Vyakarana Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages262
LanguageApbhramsa, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size12 MB
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