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भागों में रचित नयनंदीकृत 'सयलविहिविहाणकव्व' (सं. सकलविधिविधान काव्य ) (ई.. सन् 1044) तथा 53 संधि में निबद्ध श्रीचन्द्रकृत 'कहकोस' (सं. कथाकोश ) ( ईसा की ग्यारहवीं शती) ये दोनों रचनायें श्रमणजीवन विषयक, और जैन आगकल्प प्रसिद्ध दिगम्बर ग्रन्थ 'भगवती - आराधना' से सम्बद्ध करती है । नयनंदी और श्रीचंद्र ने स्वीकार किया है कि उनकी संस्कृत और प्राकृत के आराधना - कथाकोशों पर आधारित हैं ।
शैरसेनी में रचित कथाओं का वर्णन रचनायें पुरोगामी
21 संधि की
श्रीच ंद्र कृत 'दंसणकहरयणकरंड' (सं.
दर्शनकथारत्नकरण्ड)
( ई. सन् 1064), 11 संधि की हरिषेण कृत 'धम्मपरिक्ख' (सं. धर्मपरीक्षा) ( ई. सन् 988 ), 14 संधि की अमरकीर्ति कृत 'छक्कम्मुवएण्स' (सं. षट्कर्मोपदेश) और संभवत: 7 संधि की श्रुतकीर्ति कृत 'परमिनियाससार' (सं. परमेष्ठिप्रकाशसार ). ( ई. सन् 1497 ) आदि रचनाओं का भी इसी प्रकार में समावेश होता है । इन में से अभी तक तीन-चार रचनाओं का प्रकाशन हुआ है ।
इनमें से हरिषेण की 'धम्मपरिक्ख' रचना अपनी कथावस्तु की विशिष्टता के कारण विशेष रसप्रद है । इस में मुख्यतः ब्राह्मण - पुराण कितने असम्बद्ध और अर्थहीन हैं यह सटीक प्रयुक्ति से प्रमाणित कर के मनोवेग अपने मित्र पवनवेग को जैन धर्म स्वीकार करने की जो प्रेरणा देता है, उसकी बात है । मनोवेग पवनवेग की उपस्थिति में एक ब्राह्मणसभा में अपने बारे में नितांत असंभवित और ऊटपटांग बातें जोड़कर कहता है और जब वे ब्राह्मण इन बातों को स्वीकार नहीं करते तो वह रामायणमहाभारत और पुराणों में से ऐसे ही असंभवित प्रसंग और घटनाओं को अपनी बातों के समर्थन में प्रस्तुत करके अपने शब्दों को सही प्रमाणित करता है । हरिषेण की इस कृति का आधार कोई प्राकृत रचना थी । आगे चलकर 'धम्मपरिक्ख' का अनुसरण करते हुए संस्कृत तथा अन्य भाषाओं में भी कुछ काव्यों की रचना हुई है । हरिभद्रकृत प्राकृत 'धूर्ताख्यान' (ईसा की आठवीं शताब्दी) में इन विषयक की सर्वप्रथम रचना इस से भी पहले की है ।
इस संक्षिप्त वृत्तांत पर से एक अंदाज मिल सकेगा कि अपभ्रंश साहित्य में संधिबंध का कितना महत्त्व था ।
रासाबंध
संधिबंध की भाँति अपभ्रंश ने स्वतंत्र रूप से जिस का विकास किया है और जो काफी प्रचलित है ऐसा एक और साहित्य - स्वरूप है रासाबध । अनुमान किया
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