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'पर (की चोट) से ऊँचे उठलना, नाखून से मंजरी टूटना, भँवर का बोझ उठाना-(यह सब) दुबली और कांपती होने के बावजुद मालती ही सहती है ।'
और
कुंदुक्खणणं निअ-देस-छडणं कुट्टणं च कड्ढणं च ।
अइरत्ता मंजिठा किं दुक्खं जे न पावेइ ॥ ('सुकृतसागर,' पत्र 9, उद्धृत गाथा 1, और 'मणोरमा-कहा, पृ. 160, . गाथा 120 (पाठान्तर : अइकढणं, अइरत्ते मंजिठे, पावहिसी) 438/3. के साथ तुलनीय :
जई लोअ-णिदिंअं जइ अमंगलं जइ वि मुक्क-मज्जा। पुप्फवइ-दसणं तह वि देइ हिअअस्स णिव्वाणं ॥
___ ('सप्तशतक' 5180) 'लोकनिंदित है, अमंगल है, मर्यादारहित है फिर भी पुष्पवती का दर्शन हृदय को निवृति देता है।'
लोओ जरह जूरउ वअणिज्ज होइ होउ तं णाम । एहि णिमज्जसु पासे पुप्फवइ ण एई मे णिद्दा ।।
(सप्तशतक', 6/29) 'लोग निंदा करते हैं ? करने दो । बदनामी होती है ? होने दो । आव पुष्पवती, मुझ में दुबक जा-मुझे नींद नहीं आती ।' 439/4. के साथ तुलनीय :
आमोडिङा बलाउ हत्थं मज्झं गओ सि भो पहिअ । हिअआउ जइ य णीहसि सामत्थं तो हुथ जाणिस्सं ॥
(सप्तशतक,' 749 = भुवनपाल, 323) 444/2. के साथ तुलनीय :
भूमीगयं न चत्ता सूरं ठूण चक्कवाएण । जीयग्गल ब्व दिन्ना मुणालिया विरह-भीएण ॥
('वज्जालग्ग,' 723) सूर्य को भूमि छूता देखकर विरहभीत चक्रवाक ने कमलतंतु (मुँह से) हटा नहीं दिया परंतु प्राणों के आगे अर्गला की तरह (गले में ही) रखा ।
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