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जत्तो पेसेइ दिहि सरस-कुवलआपीडरूअं सरूआ मुद्धा इद्धं सलीलं सवणविलसिरं दंतकंतीसणाहं । तत्तो को अंड-मुट्ठि णिहिअ-सरवरो गाढमाबद्धलक्खो । दूरं आणाविहेओ पसरइ मअणो पुश्वमारूढवक्खो ।।
('स्वयंभूछन्द', 1/119) 423/2. : के साथ तुलनीय :
खज्जति टसत्ति न भंजिऊण पिजति नेव धुंटेहिं । तह-वि कुणंति तित्ति आलावा सज्जण-जणस्स ।।
('गाहारयण-कोस', पद्य 84) 426/1. के साथ तुलनीय :
सो णाम संभरिज्जइ पन्भसिओ जो खणं पि हिअआहि । संभरिअव्वं च कथं गरं च पेम्मं णिगलंब ॥
('सप्तशतक,' 1/95) 'याद तो उसे करना होता है, जो हृदय में से (एक) क्षण के लिये भी हटे । जो प्रेम याद करने जैसा किया उसे निराधार बना (ही जानिये) ।
यही गाथा कुछ पाठान्तर के साथ 'जुगाइजिणिद-चरिय' (पृ. 53) में मिलती है।
427/1 = 'परमात्माप्रकाश', 271.
(पाठान्तर : पँचहुँ नायकु, जेण होति वसि अण्ण, तरुवरहँ अवसइँ सुक्कहि पण्ण) । 434/1 के साथ तुलनीय :
अविअण्ह-पेक्खणिज्जेण तक्खणं मामि तेण दिळेण । सिविणअ-पीएण व पाणिएण तण्ह चिअ ण फिट्टा ।।
('सप्तशतक,' 1/93) 'हे सखी, उस क्षण, देखने पर भी तृषा बुझे ही नहीं ऐसे दर्शनीय उसे देखकर (मानों कि) स्वप्न में पानी पीने से तृषा बुझी ही नहीं ।' 438/2. के साथ तुलनीय :
पक्खुक्खेवं नह-सूइ-खंडणं भमर-भरसमुम्वहणं । उय सहइ थरहरंती वि दुबला भालइ च्चेव ।।
('वज्जालग्ग', 235)
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