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322/3 भ्रष्ट रूप में 'दोहापाहर्ड' में (151) मिलता है । 422/6 'स्वयंभूच्छन्द' 4/33 में पाठ इस प्रकार है :
सव्व गोविउ जइ वि जोएइ हरि सुठ्ठ वि आअरेण देइ दिठि नहिं कहि वि राही ।
को सक्का संवरेवि डड्ढ-णअण हें पलोट्टउ ॥ 422/8. के साथ तुलनीय : दूरओि वि चंदो सुणिव्वुइ कुणइ कुमुयाण ।
('वज्जालग्ग', 78(2)) 'दूर होने पर भी चन्द्र कुमुदों के लिये परम निवृत्तिकर है ।' गयण-ट्ठिओ वि चंदो आसासइ कुमुय-संडाई ॥
('वज्मालग', 77(2)) 'गगन में रहने पर भी चन्द्र कुमुदसमूह को आश्वासन देता है ।'
कत्तो उग्गमइ रवी कत्तो वियसति पकय-वणाई । सुयणाण जत्थ नेहो न चलइ दूरठियाणं पि ॥
('वज्जालग्ग', 80) 'सूर्य कहाँ उगता है और पंकज कहाँ खिलते हैं । सज्जन दूर रहते हों फिर भी उनका स्नेह जहाँ हो (वहाँ से) चलित होता नहीं है।' 422/11. के साथ तुलनीय :
नयरं न होइ अट्टालएहि पायार-तुंग-लिहरेहिं । गामो वि होइ नयरं जत्थ छइल्लो जणो वसई ।।
('वज्जालग्ग', 270) 'अट्टालयों से और ऊँचे शिखरवाले प्राकारों से नगर बनते नहीं हैं । जहाँ विदग्ध मनुष्य रहते हैं, (वह) गाँव भी नगर बन जाता है ।' 422/18. के साथ तुलनीय :
जत्तो विलोल-पम्हल-धवलाई चलंति नवर नयणाई। आयण्ण-पूरिय-सरो तत्तो च्चिय धावइ अणंगो ।
('वज्जालग्ग,' 294) 'जिस ओर चंचल पलकोवाले श्वेत नयन मुड़ते हैं, उसी ओर कानों तक खिंचे हुए शरवाला अनंग दौड़ता है ।'
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