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संस्कृत में -क-प्रत्यय (बालक आदि में) प्रचलित था । उस में से आये -अप्रत्यय का प्रदेश प्राकृत-अपभ्रंश में अतिविस्तृत बना । अपभ्रंश में तो लगभग किसी भी अंग का -अ-प्रत्यय से विस्तार करने का चलन है। गुजराती का छोकरो और हिंदी का लड़का इस प्रकार के अंग अपभ्रंश के स्वार्थिक -अप्रत्यय के कारण हैं । हिंदी, गुजराती आदि में वर्तमान कृदंत, भूतकृदंत और विकारी विशेषणों आदि में यह -अ- प्रत्यय है । -उल्ल- प्रत्यय से हिंदी -उल-, गुजराती -अल- । मोरुल्लउ>गुज. मोरलो ('मोर'); हिं बगुला ।
वास्तव में -अड- भौर -उल्ल- अकेले प्रयोग नहीं किये जाते | -अडयऔर -उल्लय- यों -अ- प्रत्यय से संयुक्त ही ये मिलते हैं। देखिये बाद का सूत्र ।
लगता है हेमचन्द्र के उदाहरणों का आधारभूत अपभ्रंश साहित्य विविध कशा का होगा । स्वयंभू, पुष्पदंत जैसों की प्रशिष्ट अपभ्रंश कृतिओं के अलावा लौकिक साहित्य में से भी उदाहरण लिये गये हैं । -अड- प्रत्यय का मुक्त प्रयोग यह हेमचन्द्र के समय की करीब की लोकबोली का लक्षण होगा, ऐसा लगता है । ऐसे प्रत्ययवाले शब्दों से युक्त भाषा ज्यादा इस ओर की, ज्यादा जीवंत है । अवधी, मालवी आदि के लोकगीतों में र और गुजराती लोकगीतों में ड, ल आदि स्वार्थिक प्रत्ययवाले शब्द मुक्त रुप से प्रयुक्त हुए हैं ।
___430. हेमचन्द्र के व्याकरण के प्राकृत विभाग के पहले पाद में (सू. 269) किसलय, कालायस और हृदय के य का प्राकृत में लोग होने का नियम दिया है । उसके आधार पर हृदय का हिअ- और फिर -अड- और -अ- प्रत्यय जुडकर हिअडय- ।
बलुल्लडउ में -उल्ल-, अड- और -अ- यों तीन प्रत्यय एक साथ हैं । बताये गये कारण नायक को बारबार युद्ध के लिये प्रेरित करे ऐसे-उसे घर से लगातार दूर और जोखिम में रखे ऐसे हैं ।
432-433. आले सूत्र में स्वार्थिक प्रत्ययों का स्त्रीलिंग ई प्रत्यय से सिद्ध करने का नियम दिया गया है। परंतु घूली जैसे शब्द पर से घूलडिअ बनता है, उसे सिद्ध करने के यह दो सूत्र दिये हैं । हेमचन्द्र के अनुसार धूली+-अडअ- = *धूलडअ- । धूलडअ-- को स्त्रीलिंग का ई नहीं परंतु आ प्रत्यय लगता है, और वह लगने पर उसका पूर्व स्थित अ का इ होता है । धूलडअ- को डित् -आ लगने पर धूलडआ और सू. 433 के अनुसार धूलडिआ ।
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