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हुए हैं। उत्तरार्ध में विनाशकाले विपरीत - बुद्धिः 'विनाश के समय में बुद्धि विपरीत हो जाती है' नामक प्रसिद्ध कहावत है |
425 (1). केहि पर से हिंदी के । प्राचीन गुजराती में रेसि प्रयुक्त होता रहा है । तणेण यह मूल में तणेण कारणेण 'उसके कारण' पर से ।
426. पुनः - पुनो - पुणो- पुणु ऐसा विकासक्रम । विना का विणा और विण होना चाहिये । परंतु सादृश्य से विणु हुआ है। आधुनिक गुज. वण ( ' चिन!') । उदाहरणपथ की मूलभूत गाथा के लिये देखिये 'परिशिष्ट' ।
427. अवश्य > अवस्स > अवस ऐसा बिकासक्रम है । तुलनीय सहस्र > सहरस> सहस | तृतीया का प्रत्यय लेने पर अवसें ।
अधीन पर से अर्धतत्सम अद्धिन्न हुआ है । उस पर से आधुनिक आधीन इस तरह आधीन यह पराधीन आदि से केवल निष्पन्न रूप न भी हों, आधुनिक गठन का नहीं परंतु परंपरागत और इसीलिये 'शुद्ध' हो ।
छन्द : 27 मात्राओं का कुंकुम । यह द्विपदी है। 15 मात्राओं के बाद । नाप : 15 + 12; गणविभाग : 4+4+4+3 और 4 + 4 + 4
यह पद्य 'परमात्मप्रकाश' में भी मिलता है । देखिये 'परिशिष्ट' । सूत्र 429437 में कुछ तद्धित प्रत्यय दिये गये है।
के
शुरु होते
429. प्रत्यय - अड- और -उल्ल- - है, उन्हें सूत्र में - डड- और रूप में दिया गया है । आगे जुड़ा हुआ डकार पारिभाषिक है | स्वर प्रत्ययों या आदेशों के आरंभ में ऐसा सूचित करने के लिये डकार रखा जाता है कि इन प्रत्ययों के लगने पर उसके पूर्व का स्वर-अंग का अंस्य स्वर-लुप्त होता है । ऐसे प्रत्ययों का परिभाषिक नाम डित् हैं । डित्-अड अर्थात् ऐसा -अड- प्रत्यय जिसके दोस + - अड- =
=
अर्थात् इन प्रत्ययों के लगने पर अंग के मूल अर्थ में कोई फरक पड़ता नहीं है । प्रत्ययसहित या प्रत्ययरहित अंग का अर्थ एक ही रहता है । इसलिये ये स्वार्थिक प्रत्यय कहे जाते हैं। मूल में तो ऐसे प्रत्यय आत्मीयता, प्यार, दुलार, लघुता, हीनता, अपकर्ष आदि भावों की छायाओं को सूचित करने के लिये प्रयुक्त होते हैं । फिर आगे चलकर अति परिचय के कारण उनकी अपनी अर्थछाया में घिस जाने पर वे स्वार्थिक प्रत्यय बन जाते हैंकेवल अंगविस्तारक प्रत्यय बन जाते है ।
लगने पर अंगका अंत्य स्वर लुप्त होता है । दोस- + अडदोसs - | ये प्रत्यय 'स्वार्थे' लगते हैं- 'स्वव्यर्थे' लगते हैं
।
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डुल्ल
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