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________________ १४९ सं. भगिनी का अनियमित बहिणी; उसके बहिण- अंग को दुलार का वाचक -उअ- प्रत्यय लगकर बहिणुअ सिद्ध हुआ है। आठवीं शताब्दी के आसपास के राजस्थान-गुजरात के शिलालेखों में -उक- प्रत्यय वाले विशेष नाम मिलते हैं । (कक्कुक, शीलुक- आदि) । छन्द 16 मात्रा का वदनक है । देखिये 407 (1) विषयक टिप्पणी । (15). प्रेमपात्र की प्राप्ति का विचार करता रहे परंतु उसके लिये पाई भी खर्च न करे उसकी तुलना ऐसे 'गेहेनर्दी' के साथ की गयी है जो सही में भाले का उपयोग रणभूमि में करने के बदले घर में बैठे बैठे ही मन के घोड़े दौड़ाता है । छन्द बदनक । देखिये सूत्र 407 (1) विषयक टिप्पणी । (17). देखिये 420 (5) विषयक टिप्पणो । (18). अपूरइ कालइ 'समय से पहले कच्ची उम्र में', 'आयु पक्व होने से पहले', 'अकाल' । (20). केरउ और तणउपर से गुज. केरु, तणुं आये हैं । जो अब तो केवल काव्य-भाषा में ही प्रयुक्त होते हैं । तृण- में ऋकार सुरक्षित रहा है। (21). यह सच है कि मब्भीस का मूल में सं. मा भैषीः है, परंतु अर्थ का लक्षणा से विकास हुआ है । 'डर मत' यह अभयवचन हुआ इसलिये मब्मीस'अभयवचन', 'आश्वासन' | अपभ्रंश में मब्भीसू धातु के रूप में 'अभयवचन देना', 'आश्वासन देना' के अर्थ में प्रयुक्त होता है । (22) सं. यावद्-+ दृष्ट-+ इका, प्रा. जाव +दिट्टिआ, जाइटिअ । 423 (2). धुंट का अर्थ 'घूट' नहीं, परंतु ध्वन्यात्मक लेना है, गट गट घट घट ऐसी आवाज के साथ | (4). लोमपटी > *लोवॅवडी > *लोवडी > लोअड़ी। यह रूप मध्य-प्रदेश के विशिष्ट ध्वनिपरिवर्तन के अनुरूप है । गुजराती में लोवडी पर से लोबडी 'कम्बल' । उट्ठा और बइसइ पर से अपभ्रंश भूमिका में प्रचलित चलन के अनुसार स्त्रीलिंग क्रियानाम | गुजगती, हिन्दी आदि में माग, भाळ ('पता'), पहूँच/पहोंच, समझ/समज आदि इसी प्रकार की स्त्रीलिंग संज्ञायें हैं । 424. एक ही पद्य में स्वार्थे ड प्रत्यय वाले तीन शब्द एक साथ प्रयुक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001465
Book TitleApbhramsa Vyakarana Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages262
LanguageApbhramsa, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size12 MB
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