________________
१२५
गृण्हइ में मूल का ऋकार सुरक्षित है। देखिये भूमिका में 'ज्याकरण की रूपरेखा वज्जेइ, करेइ ऐसे रूपों के लिये 334 वे सूत्र में समाणेइ विषयक टिप्पणो देखिये ।
जिव : यह जिम का रूपांतर है (सूत्र 397)। जिम के लिये देखिये सूत्र 401 ।
चूर : यह संज्ञा चूर धातु से प्राकृत अपभ्रंश भूमिका में सिद्ध हुई है। देखिये भूमिका में 'व्याकरण की रूपरेखा' ।
338. संस्कृत के स-अंतवाले अंगों के षष्ठी एकवचन के रूप (मनसः, सरसः). पर से षष्ठी का हो (या ) प्रत्यय विकसित हुआ है (मणसो, सरसो. > मणहो, सरहो ) °हु के प्रभाव में सं. जनस्य पर से बने प्रा. जणस्स का अपभ्रंश में जणस्सु हुआ और कुछ सार्वनामिक रूपों में सकार इकहरा होने पर सु प्रत्यय सिद्ध हुआ है (तस्सु > तसु) । हेमचन्द्र हु को अपादान-विभक्ति तक सीमित रखते है । परंतु साहित्य में संम्बध-विभक्ति के प्रत्यय के रूप में भी वह सुप्रचलित है।
तसु सुजणस्सु : प्राकृत-अपभ्रंश में षष्ठी संस्कृत की चतुर्थी और षष्ठी दोनों . का कार्य करती है।
बलिकर 'बलिदान देना' : 'विरूप' कर्मणि वर्तमान प्रथम पुरुष एकवचन । . तुलनीय 389 (1)।
339. सं. स.-अंतवाले अंगों का षष्ठी बहुवचन में °साम् होता है; प्राकृत में °सं, फिर ह। सह का अपभ्रंश में सामान्य रुप से सहुँ होता है (सू. 419)। परंतु यहाँ सह यथावत् प्रयुक्त हुआ है । प्रायोधिकारत् । उदाहरण एक अन्योक्ति का है। बात संग्राम खेलते सुभटों की है । या तो उनकी सहायता से स्वामी विजय पाता है या वे स्वामी के साथ ही धराशयी होते हैं ।
340, 341, 343 ये सूत्र इकरांत उकारांत अंगों के बारे में हैं । साहित्य . में अकारांत संज्ञा के भी हुँ प्रत्ययांत षष्ठी बहुवचन के रूप मिलते हैं ।
340 (2). ढोल्ला सामला की भाँति गरुआ प्रथमा-द्वितीया एकवचन का आकारांत रूप है । उत्तरार्ध में ही जुत्तउ जैसा रूप साथ में प्रयुक्त हुआ है, यह ध्यान में रखना है । छंदनिर्वाह के लिये किं के स्थान पद कि (एक-मात्रिक)। .
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org