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ऐसे रूप लाक्षणिक माने जायेंगे । इस दृष्टि से इस दोहे की भाषा का झुकाव प्राकृत की और है। ताण गणंतिएँ में गण- क्रिया के योग से कर्मविभक्ति के बदले सम्बन्धविभक्ति का प्रत्यय प्रयुक्त हुआ है। संस्कृत और अपभ्रंश की सम्बन्ध विभक्ति के अलग अलग प्रदेश थे । अपभ्रंश के कुछ विशिष्ट प्रयोगों के लिये देखिये | भूमिका में 'ध्याकरण की रूपरेखा.'
334. इस सूत्र में संज्ञा के अंत्य स्वर का ही परिवर्तन नहीं परंतु विभक्ति प्रत्यय सहित अंत्य स्वर का परिवर्तन दिया गया है । -इ (तलि) और -ए (तले) ऐसे दो प्रत्यय हैं। इसकी स्पष्टता यह है कि संस्कृत-प्राकृत के सप्तमी एकवचन का -ए अपभ्रंश में आरंभ में हस्व (-ए) बनता है और फिर -इ । यह परिवर्तन प्रथमा एकवचन के -ओ>-ओ>-उ से मिलताजुलता है । देखिये भूमि में 'व्याकरण की रूपरेखा.
घल्लू- का ‘फेंकना', 'डालना' अर्थ आधुनिक गुजराती में बदल गया है । घालवु अर्थात् खोंसना गुज. नाखवु के फेंकना' और 'खोसना' ये दो अर्थ भी इस संदर्भ में ध्यान में रखने चाहिये ।
संमाणेइ में आख्यातिक अंग को प्रत्यय के साथ जोड़नेवाले संयोजक स्वर के रूप में अ नहीं परंतु ए है (देखिये भूमिका में 'व्याकरण रूपरेखा') छन्द में -- इस प्रकार के अन्तवाला शब्द जब चाहिये तब कभी कभी उसका प्रयोग होता है । प्राकृत में ए वाले रूपों का विशेष प्रचलन था । यह ए संस्कृत के दसवें गण के -अय से विकसित हुआ है । खलाई : पुल्लिंग के स्थान पर नपुंसकलिंग । देखिये सूत्र 445 तथा भूमिका में 'व्याकरण की रूपरेखा' ।
335. बोड़ी यह. द्रम्म, काकिणी, वराटिका या कपर्दिका ( = कौड़ी) आदि जैसा प्राचीन समय में प्रचलित सिक्का था । मध्यकाल में 20 कौड़ियों के बराबर एक काकिणी अथवा एक बोड़ी का मूल्य होता था ।
336. अब इस सूत्र से लेकर 359 तक संज्ञाविभक्ति के प्रत्ययों का परिवर्तन दिया गया है।
उपलब्ध अपभ्रंश साहित्य में पुंल्लिग पंचमी एकवचन के हु या हो प्रत्ययांत रूप ही मिलते हैं । हे प्रत्ययांत रूप मिलते नहीं है ।
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