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सूत्र में कहा गया है कि पुंल्लिंग प्रथमा एकवचन में संज्ञा के अंत्य स्वर उ के स्थान पर विकल्प में ओ होता है । नरु के स्थान पर नये । मूल में तो नरो रूप शुद्ध प्राकृत है और केवल नरु यही शुद्ध अपभ्रंश है । पर जैसे कि पहके बताया उस प्रकार अपभ्रंश काव्यों में बीच बीच में किसी किसी अंश में प्राकृतप्रचुर भाषा का उपयोग होता था तथा उहाँ छन्द की आवश्यकता होती वहाँ अपभ्रंश के स्थान पर प्राकृत रूप लिया जाता था । पीछे आम्हवाचक वि ( = अपि) हों तबः भी संधि- प्रभाव से ओकारांत रूप प्रयुक्त करने का चलन था । इस प्रकार मूल में तो ओकरांत रूप अपभ्रंश में होते प्राकृत रूपों के मिश्रण के ही सूचक हैं ।
जो और सो नामिक रूप नहीं है | सार्वनामिक है । जबकि यहाँ तो नामिक (संज्ञा ) रूपाख्यान प्रस्तुत है । पहले दूसरे पुरुष सर्वनामों के तथा इतर सर्वनामों के किसी किसी रूप के अपवाद में, सर्वनामों के रूपाख्यान संज्ञा जैसे ही है ।
338 के उदाहरण में भी ऐसा है ।
332 (1) ठाउ का मूल वैदिक स्थाम 'स्थान' है । स्थाम-ठाम-ठवु ठाउ | प्रशिष्ट संस्कृत में सुरक्षित न हों परंतु वैदिक भाषा में हों ऐसे कुछ रूप, शब्द, प्रत्यय और प्रयोग अपभ्रंश में मिलते हैं । अपभ्रंश की बुनियाद में रही हुई बोलिओ में वैदिक समय की बोलियों की परंपरागत विगसत सुरक्षित होने के ये प्रमाण हैं । ठाउ रूप मध्यदेशीय है । गुजगती में मूल का मकार सुरक्षित रहता है। इसलिये पश्चिमी रूप ठामु होगा | आधुनिक गुजराती ठाम |
332. (2). पिअ : यह प्रत्ययलुप्त षष्ठी का रूप है । (देखिये सूत्र 355 ) छन्द की खातिर पिअ - मुह - कमलु समास को तोड़कर बीच में जोअंतिहे रख दिया हो ऐसा लगता है ।
333. प्राकृत - अपभ्रंश में संस्कृत की चतुर्थी और षष्टी एक बन गयी है । इसलिये महु यहाँ चतुर्थी के अर्थ में है । दिअहडा = दिअह - + - डा. दिअह - सं.. दिवस - द्विस्वरांतर्गत व के लोप के अन्य उदाहरणों के तथा स ->- इस परिवर्तन के लिये देखिये भूमिका में 'व्याकरण की रूपरेखा. '
वसंते, नहेण, ताण, गणंतिऍ और जज्जरिआउ प्राकृत भूमिका से चले आये रूप हैं । अपभ्रंश के लिये पवसंतें, नहे, ताहं, गणंतिहे और जज्जरिअङ
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