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ऐतिहाविक तथा आधुनिक पृथक्करण की दृष्टि से प्रथमा के उ, आ प्रत्यय ही माने जायेंगे | सं. नरः>प्रा. नरो (सं. नरो याति जैसे में प्रयुक्त होते नरः के संधिरूप पर से) और नरो के अत्य ओ का उच्चारण कमजोर पड़ने पर नरो द्वारा नरु । इसी प्रकार सं. कमलम् >कमल का कमलेाँ और फिर कमलु । नराः का नरा । नावइ प्रा. नब्वइ वह ज्ञा- धातु का कर्मणि रूप है ।
उदाहरण का विषय सूचित करते हैं कि संभवतः यह कोई जैनेतर-ब्राह्मणीय परंपरा की रामायण विषयक अपभ्रंश रचना से लिया हुआ उदाहरण हो । छन्द देखने पर लगता है कि वह मूल रचना अपभ्रंश पौराणिक काव्यों की भांति संद्धिबद्ध हो । छन्द षट्पदी प्रकार का 12+8+ 12 (पहिला-दूसरा, चोथा-पाँचवां
और तीसरा-छठा चरण प्रामबद्ध) ऐसे माप का है। संधि-कडवक-यमक में विभक्त अपभ्रंश महाकाव्य में कडवक के अंत में आती (प्राचीन गुजराती के 'वलण' जैसा) 'घत्ता' में ऊपर जैसी षट्पदियों का प्रयोग होता था । अभीतक ब्राह्मणीय परंपरा की कोई अपभ्रंश कृति मिली नहीं है इस दृष्ठि से प्रस्तुत उदाहरण का विशेष महत्त्व है । चतुर्मुख (अप. चउमुह) नाम से एक अपभ्रंश महाकवि के उल्लेख तथा उसकी रामायण-महाभारत-विषयक रचनाओं में से फूटकल उद्धरण मिलते हैं, उसे देखकर लगता है यह उदाहरण उसके किसी रामायण-विषयक अपभ्रंश काव्य से लिये जाने की भी संभावना है।
___330. विभक्ति-प्रत्ययों का सूत्रों में निर्देश प्रथमा एकवचन' इत्यादि के रूप में नहीं होता । उसके लिये खास संज्ञाओं को प्रयुक्त किया है । ये पारिभाषिक संज्ञाएँ इस प्रकार हैं:
बहुवचन
प्रथमा द्वितीया तृतीया चतुर्थी पंचमी षष्ठी सप्तमी
एकवचन सि ( = स्) अम् दा ( = आ) ॐ ( = ए) सि ( = अस.) ङसि (= अस)
जस = अस.) शस (= अस) भिस. भ्यस
आम्
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